पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/५४

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द्वितीय सर्ग
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चिन्तितः पृच्चित्तु
चतुष्पद

अवध के राज मन्दिरों मध्य ।
एक आलय था बहु-छबि-धाम ॥
खिंचे थे जिसमें ऐसे चित्र ।
जो कहाते थे लोक-ललाम ॥१॥

दिव्य-तम कारु-कार्य अवलोक ।
अलौकिक होता था आनन्द ।।
रत्नमय पञ्चीकारी देख ।
दिव विभा पड़ जाती थी मन्द ॥२॥