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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/७३

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तृतीय सर्ग

जगत ही है विचित्रता धाम ।
विविधता विधि की है विख्यात ॥
नही तो सुन पाता क्यों कान ।
अरुचिकर परम असंगत बात ॥२४॥

निद्य है रघुकुल तिलक चरित्र ।
लांछिता है पवित्रता मूर्ति ।।
पूत शासन में कहता कौन ।
जो न होती पामरता पूर्ति ॥२५॥

आप हैं प्रजा - वृन्द - सर्वस्व ।
लोक आराधन के अवतार ॥
लोकहित - पथ - कण्टक के काल ।
लोक मर्यादा पारावार ॥२६॥

बन गई देश काल अनुकूल ।
प्रगति जितनी थी हित विपरीत ॥
प्रजारजन की जो है नीति ।
वही है आदर सहित गृहीत ॥२७।।

जानते नही इसे हैं लोग ।
कहा जाता है किसे अभाव ॥
विलसती है घर घर में भूति ।
भरा जन - जन मे है सद्भाव ॥२८॥