पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
चतुर्थ सर्ग
--*-
वशिष्ठाश्रम
तिलोकी

अवधपुरी के निकट मनोरम - भूमि मे।
एक दिव्य-तम-आश्रम था शुचिता-सदन ॥
बड़ी अलौकिक-शान्ति वहाँ थी राजती ।
दिखलाता था विपुल-विकच भवका बदन ॥१॥

प्रकृति वहाँ थी रुचिर दिखाती सर्वदा ।
शीतल - मंद - समीर सतत हो सोरभित ।।
वहता था बहु-ललित दिशाओं को बना।
यावन - सात्विक - सुखद-भाव से हो भरित ॥२॥