पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१३३

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28. कुण्डनी का अभियान

इस असुरपुरी में जितनी स्वतन्त्रता सोम को प्राप्त थी, उस सबका सम्पूर्ण उपभोग करके सूर्यास्त के समय अत्यन्त थकित और निराश भाव से उसने उस गुफाद्वार में जब पैर रखा, जहां उनके ठहरने की व्यवस्था थी, तो वहां का दृश्य देख वह एकबारगी ही चीत्कार कर उठा। कुण्डनी, गुफा के मध्य में एक शिलाखण्ड पर बिछे बाघम्बर पर बैठी थी। उसके हाथ में उसका पूर्वपरिचित वही विषधर नाग था। नाग उसके कण्ठ में लिपट रहा था और उसका हाथभर चौड़ा फन कुण्डनी के हाथ में था। कुण्डनी की आंखों से आज जैसे मद की ज्वाला निकल रही थी। वे जैसे अगम सागर पर तरणी की भांति तैर रही थीं। सर्प की हरी मरकत मणि जैसी आंखें उन आंखों से युद्ध कर रही थीं। इसी अभूतपूर्व और अतर्कित नेत्र युद्ध को देखकर सोम चीत्कार कर उठा था। परन्तु उसके चीत्कार करते ही कुण्डनी ने चुटकी ढीली कर दी। सर्प ने उसके मृदुल ओठों पर दंश दिया। सोम ने झपटकर सर्प को उसके हाथ से छीनकर दूर फेंक दिया और हांफते-हांफते कहा—"यह तुमने क्या किया कुण्डनी?"

"तुम बड़े मूर्ख हो सोम। अगर नाग मर गया तो? यह तक्षक जाति का महाविषधर नाग है। पिता इसे कम्बोज के वन से लाए थे। पृथ्वी पर ऐसा विषधर अब और नहीं है। तुमने उसे आघात पहुंचा दिया हो तो?"

वह लहराती हुई उठी, नाग को बड़े प्यार से उठाकर हृदय से लगाया। नाग इस समय सिकुड़कर निर्जीव हो रहा था। उसका तेज-दर्प जाता रहा था।

सोम ने कहा—"कुण्डनी, तुम्हारा अभिप्राय मैं समझ नहीं सका। आचार्य ने मुझे तुम्हारा रक्षक बनाया है।"

"तो रक्षक ही रहो सोम। अभिप्राय जानने की चेष्टा न करो।" कुण्डनी ने भ्रूकुंचित करके कहा।

"तो तुम यह क्या कर रही थीं, कहो?"

"जो उचित था वही।"

"क्या आत्मघात?"

"दंश से क्या मेरा घात होता है। उस दिन देखा नहीं था?"

"तुम कौन हो कुण्डनी?" सोम ने घोर संदेह में भरकर कहा।

"पिता ने कहा तो था, तुम्हारी भगिनी। अब और अधिक न पूछो।"

"अवश्य पूछंगा कुण्डनी। हम घोर संकट में हैं। मैंने तमाम दिन इधर-उधर घूमने और भाग निकलने की युक्ति सोचने में लगाया है। पर सब व्यर्थ प्रतीत होता है। कहने को शम्बर असुर ने हमें स्वतन्त्रता दी है, पर हम पूरे बन्दी हैं कुण्डनी।"

"सो बन्दी तो हैं ही। तुम दिनभर भटकते क्यों फिरे? तुम्हें विश्राम करना चाहिए