"बन्धुल मल्ल और उसके बारह परिजनों के विक्रम का विचार नहीं किया?"
"आर्य वर्षकार ने आपत्ति की थी, वे पूरी शक्ति चम्पा-विजय में लगाकर तब इधर ध्यान देने के पक्ष में थे।"
कुछ देर चुप रहकर भगवान् वादरायण ने कहा—
"आप आए कब?"
"मध्य रात्रि के बाद। मैं अश्व पर निकला था, पर राह में वह मर गया। तब नौका पर चला। एक स्थल पर नौका उलट गई। तब मैं तैरकर मध्य रात्रि में यहां पहुंचा। आयुष्मान् मधु का मैंने रात आतिथ्य-ग्रहण किया और उसी की कुटिया में रात व्यतीत की।"
भगवान वादरायण ने प्रश्नसूचक दृष्टि से माधव की ओर देखा। मधु ने लज्जित होकर कहा—"अविनय क्षमा हो, मैं सम्राट को पहचान न सका। गुरुपद का आदेश कदाचित्..." वह अम्बपाली की ओर देखकर चुप हो गया।
अम्बपाली की ओर अभी तक सम्राट् की दृष्टि नहीं गई थी। अब उन्होंने भी इधर देखा। घृत-दीप के मन्द-पीत प्रकाश में अम्बपाली उन्हें एक सजीव चम्पक-पुष्प-गुच्छ-सी दीख पड़ी।
इसी समय भगवान् वादरायण खिलखिलाकर हंस पड़े। दोनों ने चकित होकर उनकी ओर देखा। उन्होंने कहा—
"खूब हुआ, सम्राट के लिए जो व्यवस्था की गई थी, उसका देवी अम्बपाली ने उपयोग किया, फलतः सम्राट को माधव की कुटिया के काष्ठफलक पर रात्रि व्यतीत करनी पड़ी।"
अम्बपाली ने आगे बढ़ और करबद्ध हो सम्राट् का अभिवादन किया। फिर मधुर कण्ठ से कहा—"सम्राट् की जय हो! मुझसे अनजाने ही यह अपराध हो गया है।"
सम्राट ने हंसकर कहा—"आप्यायित हुआ यह जानकर, कि जनपदकल्याणी देवी अम्बपाली ने मेरे लिए नियोजित कक्ष में शयन-सुख उठाया, और हर्षित हुआ।"
"अनुगृहीत हुई!"
"भला एक अनुग्रह तो स्वीकार किया देवी अम्बपाली ने। मुझे प्रसेनजित् से पराजित होने का क्षोभ नहीं है।" सम्राट ने हंसकर दोनों हाथ फैलाए।
भगवान् वादरायण ने हंसकर कहा—
"लाभ है, लाभ है, सुश्री अम्बपाली, तो मैं आज रात्रि में तुमसे वार्तालाप करूंगा।"
जैसी आज्ञा भगवन्! उसने प्रथम भगवान् वादरायण को और फिर मगध सम्राट को सिर झुकाकर अभिवादन किया और कक्ष से चली गई।
एकान्त होने पर भगवान ने कहा—
"तो आपकी महत्त्वाकांक्षा ने वर्षकार की बात पर विचार नहीं करने दिया?"
"इसी से तो भगवन् करारी हार खाई, परन्तु...।"
"वैशाली में ऐसा अवसर न आने पाएगा, क्यों?"
"भगवत्पाद जब हृद्गत भाव से अवगत हैं तो मैं आशीर्वाद की आशा करता हूं।"