पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

"सम्राट् को उसकी क्या आवश्यकता है! विजय के लिए उनकी सेना और कूटनीति यथेष्ट है।"

"किन्तु यह तो भगवत्पाद का कोप वाक्य है। भगवान् प्रसन्न हों!"

भगवान वादरायण ने मन्द हास करके कहा—

"नहीं-नहीं सम्राट्, कोप नहीं। परन्तु सम्राटों और विरक्तों का दृष्टिकोण सदा ही पृथक् रहता है।"

"परन्तु भगवन् जहां जनपद-हित और व्यवस्था का प्रश्न है, वहां सम्राट् और विरक्त एक ही मत पर रहेंगे।"

"फिर भी सम्राट विरक्त सदैव कत्र्तव्य पर विचार करेगा और सम्राट अधिकारों पर। ये ही अधिकार युद्ध, रक्तपात और अशांति की जड़ हैं—यद्यपि वे सदैव जनपद-हित और व्यवस्था के लिए किए जाते हैं।"

"अविनय क्षमा हो भगवन्, इस युद्ध, रक्तपात और अशांति में भी एक लोकोत्तर कल्याण-भावना है। भगवान् भलीभांति जानते हैं कि छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य छोटे-छोटे स्वार्थों के कारण परस्पर लड़ते रहते हैं, साम्राज्य ही उन्हें शांत और समृद्ध बनाता है। साम्राज्य में राष्ट्र का बल है, साम्राज्य जनपद की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है।"

भगवत्पाद हंस दिए। उन्होंने कहा—"इसी से सम्राट् छोटे-से वैशाली के गणतन्त्र को मगध साम्राज्य में मिलाना चाहते हैं?"

सम्राट् ने कुछ लज्जित होकर कहा—"भगवन्, स्वाधीनता सर्वत्र ही अच्छी वस्तु नहीं है, यह दासता की ध्वनि है और इसके मूल में आपाद अशांति, अव्यवस्था और उत्क्रान्ति है।"

भगवान् ने किंचित हास्य कर कहा—"तो कौशाम्बीपति उदयन ने श्रावस्ती अभियान में आपको सहायता नहीं दी?"

"यही तो हुआ भगवन्, विदूडभ ने यही तो कहा था कि कौशाम्बीपति ससैन्य सीमाप्रांत पर सन्नद्ध हैं; ज्योंही मगध सैन्य का आक्रमण होगा, वे उस ओर से घुस पड़ेंगे।"

"यह अभिसन्धि कदाचित् बन्धुल मल्ल ने पूरी नहीं होने दी?"

"नहीं भगवन्! आर्य यौगन्धरायण ने उदयन को आक्रमण न करके हमारे युद्ध का परिणाम देखने की सम्मति दी। यौगन्धरायण मृत मांस खाना चाहता था।"

भगवान् वादरायण जोर से हंस दिए! सम्राट भी हंसे।

"मैं भगवत्पाद के हास्य का कारण समझ गया। कदाचित् कौशाम्बीपति यौगंधरायण की सम्मति अमान्य करते, पर गान्धारनन्दिनी कलिंगसेना का अनुरोध न टाल सके। देवी कलिंगसेना ही के लिए उदयन ने कोसल पर आक्रमण किया था, परंतु कलिंगसेना ने ही जब यह संदेश भेजा कि मैंने कोसलेश को आत्मसमर्पण कर दिया है, कौशाम्बीपति का मेरे लिए अभियान धर्मसम्मत नहीं है। तब कौशाम्बीपति निरुपाय हो युद्धविरत हो गए।"

भगवान् वादरायण ने कहा—"तो सम्राट् अब नित्यकर्म से निवृत्त हो विश्राम करें। अभी और बातें फिर होंगी।" वे उठ खड़े हुए। सम्राट भी उठे। भगवान् ने कहा—"मधु, सम्राट के लिए...।"