पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२७१

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“ परन्तु कुमारी यह स्वीकार न करेंगी। वे किसी कोसल के आश्रय में रहना नहीं चाहेंगी। " " युवराज ने व्यंग्य से मुस्कराकर कहा “ कोसल ने तो कुमारी का कोई अहित नहीं किया - न उनके पिता का राज्य हरण किया , न उन्हें पथ की भिखारिणी बनाया । " “किन्तु कोसलों ने उन्हें क्रीता दासी बनाने की धृष्टता की है। ” सोम ने उत्तेजित होकर कहा । राजकुमार का मुंह क्रोध से लाल हो गया । उन्होंने कहा - “ यह तो अभद्रता की पराकाष्ठा है मित्र ! तुम जानते हो केवल मागध होने ही के अपराध में श्रावस्ती में तुम्हारा सिर काट लिया जाएगा । फिर तुमने छद्मवेश से अन्तःपुर में प्रविष्ट होने का अक्षम्य अपराध भी किया है । " “यह सिर इतना निष्क्रिय नहीं है कुमार! फिर मागध -प्रतिकार अभी अवशिष्ट है। " सोम ने अपने खड्ग पर हाथ डाला । इसी समय श्रमण महावीर ने वहां आकर कहा “ भद्र, यह तुम क्या कर रहे हो ? मेरे अनुरोध से ही कुमार विदूडभ राजकुमारी की रक्षा करने पर सन्नद्ध हुए हैं । " “किन्तु .....। " “ किन्तु -परन्तु कुछ नहीं भद्र! राजकुमार विश्वसनीय भद्रपुरुष हैं , तुम्हें उनका विश्वास करना चाहिए। " “ किन्तु मैं राजकुमारी से एक बार मिलना चाहता हूं। " “ यह सम्भव नहीं है। ” राजकुमार ने कहा । “बिना उनका मत जाने मैं स्वीकार नहीं करूंगा। " महावीर जिन हंस पड़े । फिर सोम के सिर पर हाथ रखकर बोले " तुम्हारे मन का कलुष मुझे दीख गया भद्र, उसे दूर करो। कुमारी का कल्याण जिसमें होगा , वही मैं करूंगा। " सोम बड़ी देर तक चुप रहे। फिर बोले " राजकुमार क्या उन्हें यहीं श्रावस्ती ही में रखेंगे? " श्रमण ने कुमार के मुंह की ओर देखा। कुमार ने कहा - " नहीं, यह निरापद नहीं है । कुमारी को अपने विश्वस्त चरों के तत्वावधान में साकेत भेजना श्रेयस्कर होगा। परन्तु यह सब गान्धारी माता के परामर्श पर निर्भर है। " “ तो मैं समझू कि कुमारी अब भी क्रीता दासी हैं ? वे कुमार की गान्धारी माता और कुमार की इच्छा पर निर्भर होने को बाध्य हैं ? " “नहीं भद्र, वह मेरी शरण हैं । जिसमें उनका कल्याण हो , वह मैं करूंगा। तुम्हारा काम समाप्त हुआ , अब तुम जाओ। " सोम कुछ देर सोचते रहे । फिर वह खिन्न भाव से श्रमण को अभिवादन करके चलने लगे । तब कुमार ने हाथ बढ़ाकर उठते हुए कहा, “ यह क्या -मित्र ! बिना ही विदूडभ से प्रतिसम्मोदन किए ! "