72 . उद्धार महारानी नन्दिनी पट्टराजमहिषी मल्लिका की अन्तेवासिनी हो समागता स्त्रियों की व्यवस्था तथा राजमहिषी के अन्य आदेशों का पालन तत्परता से कर रही थीं । अन्तःपुर की इस अव्यवस्थित भीड़ में यदि व्यवस्थित , कार्यतत्पर कोई था , तो देवी नन्दिनी थी । राजकुमार विदूडभ ने वहीं पहुंचकर माता से कहा - “ एक अति गुरुतर विषय पर मुझे आपसे इसी समय परामर्श करना है । " " क्या इतना गुरुतर पुत्र ? " “ अति गुरुतर । " “किन्तु मंत्रणा - योग्य निरापद स्थान इस कोलाहल में कहां है? " " क्यों , माता गान्धारी के आवास में । " “ वहां ? " “ परामर्शमें उनका रहना भी अनिवार्य है। " “ तुम कहते हो पुत्र , अनिवार्य? " " अय्या , विषय अति गुरुतर है। " " तब चलो ! " दोनों ने देवी कलिंगसेना के आवास में जाकर देखा , देवी स्थिर चित्त से बैठी कुछ अध्ययन कर रही हैं । केवल एक चंवरवाहिनी प्रकोष्ठ से बाहर अलिन्द में आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़ी है। कलिंगसेना ने देवी नन्दिनी का अभ्युत्थानपूर्वक स्वागत किया । विदूडभ ने अभिवादन किया । कलिंगसेना ने हंसकर दोनों से कहा - “स्वागत बहिन , स्वागत जात , इन अनवकाश में अवकाश कैसे मिला ? " “ निमित्त से अय्ये ! ”विदूडभ ने बात न बढ़ाकर कहा । " तो निमित्त कहो जात ! ” गान्धारी रानी ने आशंकित होकर कहा । “ एक दुष्कर्म रोकना होगा , अय्ये ! " " दुष्कर्म ? ” " हां , अय्ये! “ कह, जात ! " " राजमहिषी ने विवाहोपलक्ष्य में महाराज को भेंट देने के लिए एक दासी मोल ली है । " गान्धारी कलिंगसेना ने मुस्कराकर कहा " तो पुत्र , इसमें नवीन क्या है, असाधारण क्या है , दुष्कर्म क्या है? " " अय्ये , वह दासी चम्पा की राजनन्दिनी - सुश्री चन्द्रभद्रा शीलचन्दना है । " " अब्भुमे ! यह तो अति भयानक बात है पुत्र! "
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