पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


कुलपुत्र की माता और पत्नी आईं और तथागत का पदवन्दन करके बैठ गईं। उनसे तथागत ने आनुपूर्वी कथा कही और जब भगवान् ने उन्हें भव्यचित्त देखा तो, जो बुद्धि को उठानेवाली देशना है—दुःख-समुदय, निरोध और मार्ग, उसे प्रकाशित किया। उन दोनों को उसी आसन पर विमल-विरज धर्मचक्षु उदय हुआ। उन्होंने कहा—"आश्चर्य भन्ते, आज से हमें अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासिका जानें।"

तथागत ने उन्हें उपसम्पदा दी और विश्व में वही दोनों प्रथम तीन वचनों वाली प्रथम उपासिका बनीं।

इसके बाद सातों अर्हतों ने तृप्तिपूर्वक भोजन किया। फिर स्वस्थ हो भगवान् ने उन्हें संदर्शन, समाज्ञापन, समुत्तेजन, संप्रहर्षण प्रदान किया और आसन से उठे।

आगे-आगे तथागत, पीछे पंचजन भिक्षु और उनके पीछे कुलपुत्र यश उसी भांति जब मृगदाव लौटे तो यश के चार परम मित्र यश के पीछे-पीछे हो लिए। एक ने कहा—"यह यश कैसे दाढ़ी-मूंछ मुंडा, काषाय वस्त्र पहन एकबारगी ही घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो गया?" दूसरे कहा—"वह धर्मविनय छोटा न होगा, वह संन्यास छोटा न होगा जिसमें कुलपुत्र यश सिर-दाढ़ी मुंडा, काषाय वस्त्र पहन, घर से बेघर हो प्रव्रजित हुआ है।"

तब चारों मित्रों ने निश्चय किया कि हम भी कुलपुत्र यश की सम्पदा के भागी बनेंगे। जब सब कोई मृगदाव पहुंचे और अपने-अपने आसनों पर स्वस्थ होकर बैठे, तो चारों मित्र अभिवादन करके यश की ओर खड़े हो गए। उनमें से एक ने कहा—"भन्ते, यश कुलपुत्र! हमें भी धर्मलाभ होने दो। हमें भी वह अमृततत्त्व प्राप्त होने दो।"

यश उन्हें लेकर वहां पहुंचा, जहां तथागत बुद्ध शान्त मुद्रा से स्थिर बैठे थे। यश ने कहा—"भगवन्, ये मेरे चार अन्तरंग गृही मित्र वाराणसी के श्रेष्ठियों, अनुश्रेष्ठियों के कुलपुत्र हैं। इसका नाम सुबल, इसका सुबाहु, इसका पूर्णजित् और इसका गवाम्पति है। इन्हें भगवान् अनुशासन करें।"

तथागत ने उनसे आनुपूर्वी कथा कही और सत्य-चतुष्टय का उपदेश दिया। तब वे सुव्याख्यात धर्म में विशारद स्वतन्त्र हो बोले—"भगवान् हमें उपसम्पदा दें। भगवान् ने कहा—"भिक्षुओ, आओ, धर्म सुव्याख्यात है। अच्छी तरह दुःख के क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो।" यही उनकी उपसम्पदा हुई। तब भगवान् ने उनकी अनुशासना की। अब लोक में ग्यारह अर्हत् थे।

आग की भांति यह समाचार सारे काशी राज्य में फैल गया। यश के ग्रामवासी पूर्वज परिवारों के पुत्र पचास गृही मित्रों ने सुना कि यश कुलपुत्र भिक्षु हो गया है, वे भी बुद्ध की शरण आए और प्रव्रज्या ले ली।

अब लोक में इकसठ अर्हत् थे।

भगवान् गौतम ने कहा—

"भिक्षुओ, अब तुम सब मानुष और दिव्य बन्धनों से मुक्त हो। बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए, लोक पर दया करने के लिए, देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिए, हित के लिए, सुख के लिए विचरण करो! एक साथ दो मत जाओ। आदि में कल्याणकारक, मध्य में कल्याणकारक, अन्त में कल्याणकारक, इस धर्म का उपदेश करो। अर्थ सहित, व्यंजन सहित परिपूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का सेवन करो। अल्पदोष वाले प्राणी भी हैं,