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वैशेषिक दर्शन।

सहज नहीं है। खेत में जो ढेला पड़ा है उसका भी रंग पाकज है सो कैसे कहा जा सकता है। यदि कहें कि सूर्य की किरण में जो अग्नि है उसी अग्नि के संयोग से उस ढेले में भी रंग उत्पन्न हो गया है तो ऐसा तो जल वायु सभी के रंग के प्रसङ्ग में कहा जा सकता है।

जितने कार्य्यद्रव्य हैं उनका रूप कारणगुणपूर्वक माना गया है। अर्थात् घड़े में जो लाल रंग उत्पन्न होता है सो उसके परमाणुओं में उत्पन्न होने ही से उत्पन्न होता है। इस प्रसङ्ग में दो मत पाए जाते हैं। एक है 'पीलु पाक' दर्शन जिसका सिद्धान्त है कि कच्चा घड़ा जब आग में डाला जाता है तब उसका एक रंग नाश हो जाता है अग्नि के व्यपार से परमाणु सब विलग विलग हो जाते हैं और फिर केवल कच्चे पृथ्वी परमाणु रह जाते हैं। तब इन परमाणुओं में अग्नि के संयोग से काले रंग का नाश हो जाता है और दूसरा लाल रंग उत्पन्न होता है और ये परमाणु परस्पर मिलते हैं जिसमें द्वयणुकादिक्रम से फिर एक लाल रंग का घट उत्पन्न हो जाता है। 'पीलु' कहते हैं परमाणु को और इस मत में परमाणुओं ही का पाक माना गया है इससे इसको 'पीलु पाक मत' में कहा है। (प्रशस्तपाद १०६)। दूसरा 'पिठर पाक' मत है। इसमें घट का नाश नहीं माना गया है। अग्निसंयोग से भी घट ज्यों का त्यों बना रहता है केवल उसके छिद्रों के द्वारा गरमी प्रवेश कर के परमाणुओं के रंग को बदल देती है। इस मत वालों का यह कहना है कि यदि कच्चा घट नष्ट होकर दूसरा घट उत्पन्न हुआ माना जाय तो यह 'घट वही है जिसको मैंने कच्चा देखा था' यह बुद्धि जो होती है सो अशुद्ध होती है, ऐसा मानना पड़ेगा। प्रशस्तपादभाष्य (पृ॰ १०४) में कहा कि रूप का नाश कार्य द्रव्यों में आश्रय के नाश ही से होता है। इसके अनुसार 'पीलु पाक' ही मत सत्य है। क्योंकि जब तक कच्चे घट का नाश नहीं होगा तब तक उसके काले रंग का नाश कैसे हो सकता है। जब तक काले रंग का नाश नहीं होगा तब तक उसी द्रव्य में लाल रंग की उत्पत्ति कैसे हो सकती है।

वैशेषिकों ने पीलुपाक ही मत को स्वीकार किया है। प्रशस्तपादः भाष्य (पृ॰ १०७) में पिठरपाक मत का निराकरण किया है।