पृष्ठ:वैशेषिक दर्शन.djvu/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३१
वैशेषिक दर्शन।

इसमें भी पीलु पाक ही का भ्रम है। परमाणुओं से अतिरिक्त स्थूल द्रव्यों का रस अनित्य है क्योंकि उन द्रव्यों के नाश से इनके रस का भी नाश हो जाता है।

गन्ध (३)

गन्ध का शान घ्राणेन्द्रिय से होता है। यह पृथ्वी ही में रहता है। घ्राणेन्द्रिय की उसके द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होने में मदद करता है। गन्ध नित्य नहीं होता, क्योंकि पृथ्वी परमाणु ही इसका नित्य आश्रय है, तिस में भी यह अग्नि संयोग से नष्ट हो जाता है, फिर यह नित्य कहाँ रह सकता। इसी से रूप के सदृश नित्यानित्यत्व इसका भी है, सो प्रशस्तपाद ने नहीं कहा। केवल इतना ही कहा है कि इसकी 'उत्पत्त्यादि वैसी ही होती है'। अर्थात् जैसे पृथ्वी परमाणु में रूप अग्निसंयोग से नष्ट और उत्पन्न होता है उसी तरह गन्ध भी। (न्यायकंदली पृ॰ १०९)।

गन्ध दो प्रकार का है—सुगन्ध और दुर्गन्ध।

स्पर्श (४)

स्पर्श का ज्ञान त्वगिन्द्रिय से होता है। पृथ्वी जल अग्नि और वायु इन द्रव्यों में यह रहता है। त्वगिन्द्रिय द्वारा जितने प्रत्यक्ष ज्ञान होते हैं उन सभों में उस इन्द्रिय की मदद करता है। जिस जिस द्रव्य में रूप है वहाँ स्पर्श अवश्य है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जहाँ स्पर्श है वहाँ रूप अवश्य है। क्योंकि वायु में स्पर्श है पर रूप नहीं। वैशेषिकों ने तीन प्रकार का स्पर्श माना है—शीत (ठंढा) उष्ण (गरम) अनुष्णाशीत (न ठंढा न गरम)। महाभारत में १२ प्रकार का स्पर्श कहा है—

रुक्षः शीतस्तथैवोष्णः स्निग्धश्च विशदः खरः।
कठिनश्चिक्कणः श्लक्ष्णः पिच्छलो दारुणो मृदुः॥

स्पर्श को 'वायव्य' (वायु का) गुण इस लिये कहा है कि रूपादि जो प्रधान गुण हैं उनमें से स्पर्श ही एक गुण पाया जाता है जो वायु ही में है।

स्पर्श भी नित्य वस्तु में, जलादि परमाणु में, नित्य है, और सर्वत्र अनित्य है। आश्रय के नारा से इसका भी नाश होता है।