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गुण-संख्या

पृथिवी के परमाणु में भी यह अनित्य है क्योंकि अग्निसंयोग से स्पर्श का उसमें नाश और उत्पत्ति होती है। नाश-उत्पत्ति इसमें भी पिलुपाक ही का क्रम है।

संख्या (५)

'एक दो तीन' इत्यादि व्यवहार जिसके द्वारा होता है उस गुण को 'संख्या' कहते हैं। पृथिव्यादि नवों द्रव्य में यह गुण रहता है। संख्या एक द्रव्य में भी रहती है और अनेक द्रव्य में भी। एकत्व संख्या नित्य वस्तुओं में नित्यं है और अनित्य कार्यद्रव्य की एकत्व संख्या अनित्य हैं। एक से आगे 'द्वित्व' से लेकर परार्ध तक सब संख्याएं अनित्य हैं।

संख्या 'सामान्य' गुणों में से एक है। अर्थात् रूप रस आदि की तरह ऐसा नहीं कि जो रूप एक द्रव्य में है वही रूप दूसरे द्रव्य में नहीं हो सकता। एक ही संख्या—एक, या दो, या तीन—एक ही काल में कई द्रव्यों में रह सकती है। संख्या परिमाण इत्यादि कई गुण ऐसे ही हैँ। इसका कारण यह है कि जिस तरह रूप रस गन्ध इत्यादि गुण की 'बाह्य' 'सत्ता' होती है—अर्थात् बाहर में पाये जाते हैँ वैसे ही संख्यादि नहीं पाये जाते। इन गुणों की सत्ता ज्ञाता की बुद्धि ही पर निर्भर है। इसी से वैशेषिकों ने द्वित्यादि संख्या को 'अपेक्षाबुद्धिजन्य बतलाया है। जब कोई चीज़ आंख के सामने आती है तब पहिले देखने वाले को सब का ज्ञान एक ही दम नहीं हो जाता है—पहिले एक एक का ज्ञान होता है—'यह एक है' 'वह एक है' इत्यादि—इसी कई एकत्त्व के ज्ञान को 'अपेक्षाबुद्धि' कहते हैँ। और जब दो एकत्व का ज्ञान होता है उसी ज्ञान से 'ये दो चीज़ें' ऐसा ज्ञान होता है। इसी से द्वित्व की उत्पत्ति अपेक्षाबुद्धि से मानी गई है। और जब अपेक्षाबुद्धि नष्ट हो जाती है—अर्थात् जब कि 'वह एक है—यह एक है' ऐसा ज्ञान दो चीज़ों के प्रसंग में नहीं रहता तब "ये दो चीज़ें हैं" यह ज्ञान भी नहीं रहता—अर्थात् द्वित्व नष्ट हो जाता है।

अपेक्षा बुद्धि से उत्पन्न होती है इसी से द्वित्वादि संख्या कुल अनित्य हैँ। जो जन्य है, जिसकी उत्पत्ति होती हैं, वह नित्य नहीं हो सकता।