पर दया, सत्य बोलना, चोरी से बचना, इन्द्रियनिग्रह, छल न करना, क्रोध का रोकना, स्नान, पवित्र द्रव्य का भोजन पान, देवता विशेष पर भक्ति, उपवास, आचरण में सावधानी—ये सब मनुष्यों के लिये सामान्यधर्म के साधन होते हैं। इनके अतिरिक्त ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यों के लिये यज्ञ करना, वेद पढ़ना, दान करना, ब्राह्मणों के लिये इनके अतिरिक्त पढ़ना और दान लेना, क्षत्रियों के लिये प्रज्ञापालन, दुष्टों को दंड देना, युद्ध में डटे रहना, वैश्यों के लिये वाणिज्य, खेती, शूद्रों के लिये और वर्णों की सेवा, पृथक् पृथक् आश्रम के धर्म यों हैं। ब्रह्मचारी के लिये—गुरु के पास रहना, गुरु शुश्रूषा, सेवा, भिक्षाचरण, मद्य मांस स्त्री का वर्जन सब तरह की शानदारी से हटे रहना। गृहस्थ स्नातकों के लिये, विवाह, सद्दृत्ति से उपार्जित धन से अपने को। और अपने कुटुम्ब को पालना, सब प्राणियों को और देवताओं को बलि देना, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, ऋषियज्ञ, मनुष्ययज्ञ और भूतयज्ञ नित्य करना अग्निहोत्र इत्यादि। वानप्रस्थ के लिये वनवास, वृक्ष की छाल पहिंनना, बाल न काटना, वन में उत्पन्न पदार्थों ही से देव और अतिथि पूजन करके अपनी जीविका निवाहना। संन्यासी के लिये—सब जन्तुओं को अभय देना, यमनियमासनादिसेवन। ऊपर फहे हुए साधनों के द्वारा आत्मा मन के संयोग होने पर आत्मा में धर्म गुण उत्पन्न होता है।
अधर्म भी आत्मा का गुण है। करने वाले के अहित अप्रिय का कारण होता है। चरम दुःख और चरम ज्ञान से यह नष्ट होता है। शास्त्र में प्रतिविद्ध जितने द्रव्यगुण कर्म हैं इनका सेवन अधर्म का कारण होता है। धर्म के जितने साधन कहे गये हैं उनके विरुद्ध जितने द्रव्यगुण कर्म हैं, वे अधर्म के कारण हैं। जैसे हिंसा, चोरी करना, शास्त्र विहित कर्म का न करना इत्यादि। इन कारणों के द्वारा आत्मा मन के संयोगसे आत्मा में अधर्म गुण उत्पन्न होता है।
अदृष्ट, धर्माधर्म, संसार में जन्म का और संसार से मुक्ति का भी कारण होता है।
जब तक आदमी को असल ज्ञान नहीं प्राप्त होता तब तक राग और द्वेष उसके चित्त में बने रहते हैं। ऐसा आदमी जब