पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१००

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देश-कु-पंचाक्ष ( पश्चिमी युक्त-आन्त ) । जाति-वैदिक आर्य । काल-१०० ई० पू० वसन्त समाप्त हो रहा था । चनाब ( चन्द्रभागा ) की कछारमें दूर तक पके गेहुओंके सुनहखे पौधे खड़े हवाके झोंकेसे लहरा रहे थे, जिनमें जहाँ-वहाँ स्त्री-पुरुष गीत गाते खेत काटनेमें लगे हुए थे । कटे खेतों में उगी हरी घास चरनेके लिए बहुत-सी वछेड़ीवाली घोड़ियाँ छोड़ी हुई थीं। धूपमें एक पान्थ आगेकी और अपने भूरे कैशके जूटको दिखलाते हुए सिरमें फटे कपड़ों की उष्णीष ( पगड़ी) बाँधे, शरीरपर एक पुरानी चादर लपेटें, घुटनों तकको धोती (अन्तरवासक ) पहने, हाथमें लाठी लिए मन्द गतिसे चला जा रहा था। प्यासके मारे उसको तातू सुख रहा था । पथिकने हिम्मत बाँची थी अगले गाँवम पहुँचनेकी; किन्तु भार्गकी बगलमें एक कच्चे कुएँ तथा छोटे-से शमी वृक्षको देखकर उसकी हिम्मत टूट गई । उसने पहले अपने उष्णीष-वस्त्र, फिर नंगे होकर धोती, तथा एक बार दोनोंको जोड़कर छोरको पानीमें डुवानेकी कोशिश की; किन्तु वह सफल नहीं हुआ । अन्तमें निराश हो पास वृक्षके सहारे बैठ रहा। उसे जान पड़ने लगा कि फिर इस जगहसे उठना नहीं होगा । उसी वक्त एक कन्धेपर मशक, दूसरे कन्धेपर रस्सी तथा हाथमें चमड़ेकी बाल्टी लिए एक कुमारी उधर आती दिखाई पड़ी । पान्यकी छूटी आशा लौटने लगी । तरुणीने कुऍपर आकर मशकको रख दिया, और जिस वक्त वह बाल्टीको कुएं में डालने जा रही थी, उसी वक्त उसकी नज़र यात्रीके चेहरेपर पड़ी। उसका चेहरा मुरझाया हुआ था, ओठ फटे, गाल पिचके, अखें कोटरलीन, पैर नगै धूल-भरे ये। किन्तु इन सबके पीछेसे उसकी तरुणाईंकी झलक भी आ रही थी।