पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१२३

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१२२ वौलासे गंगा क्योंकि वह बचपनसे लगी आदत थी। तो क्या दूसरे आचार्य-कुलके अन्तेवासी इन कठोर ब्रतोंका पालन करते हैं ? ‘मजबूरी होनेपर, नहीं तो, लोपा, यह सब मान-प्रतिष्ठाके लिए किया जाता है ! लोग इसे ब्राह्मण-कुमारोंकी कठिन तपस्या समझते हैं।' 'और फिर कुरुराज पिताको गाँव, हिरण्य-सुवर्ण, दास-दासी और बड़वा ( घोड़ी )-रथ देते हैं। मेरे घर में पहले ही मैं दास काफी थीं। अब जो हालमे कुरुराजने तीन और भेजी हैं उनके लिए यहाँ काम ही नहीं है।' | बेच दे, लोपा! तरुणी हैं, एक-एकके तीस तीस निष्क (अशर्फियाँ) मिल जायेंगे। ‘अफसोस ! इम ब्राह्मण हैं । हम दूसरोसे ज़्यादा पठित और ज्ञानी भी होते हैं, क्योंकि हमें उसके लिए सुभीता है। किन्तु जब मै इन दासोके जीवनको देखती हूँ, तो मुझे ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण सारे अपने देवताओ, वशिष्ठ, भरद्वाज, भृगु, अंगिरा सारे ऋषियों और अपने पिता-जैसे आज के सारे औत्रिय ब्राह्मण महाशालों ( महाधनियों ) से घृणा हो जाती है। सभी जगह व्यापार, सौदा, लाभ, लोभ आदि दिखलाई पड़ते हैं। उस दिन काली दासीकै पतिको पिताने कोसल के उस बनिएके हाथ पचास निष्क्रमें बेच डाला । काली मेरे पास रोतीगिड़गिड़ाती रही। मैने पितासे बहुत कहा; किन्तु उन्होंने कहा-सारे दासों को घर में रख छोड़नेसे जगह नही रहेगी, और यदि रख ही छोड़ा जाय, तो वह धन काईका १ विदाई के दिनकी पहली रात दोनों किनना रोते रहे ! और उनकी वह छोटी दो वर्षकी अञ्ची--जिसका चेहरा, सुभी कहते हैं, पितासे मिलता है--सवेरेके वक उठकर कितना चिल्ला रही थी । लेकिन कालीका पति बेच दिया गया । जैसे वह आदमी नहीं, पशु था; ब्रह्माने गोया उसे और उसकी सैकड़ों पीढ़ियोंको इसीलिए बनाया है। यह मैं नहीं मान सकती, प्रवाहण ! तेरे जितना मैंने तीनों .