पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१२५

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धौलपासे गंगा 'हाँ, प्रिये ! हमने कब इस दिनकी कल्पनाकी थी। मामाने इयतै बिल्कुल छिपा रखा था कि मैं पंचाल-राजका पुत्र हैं।' उस वक्त पिता और क्या करते हैं पंचाल-राजी सैकड़ों रानियों में एक मेरी बुआ भी थीं, और पंचाल-राजके दस पुत्र तुझसे बड़े थे, इसलिए कौन आशा रख सकता था कि तू एक दिन पंचालकै राजसिंहासनका अधिकारी होगा । 'अच्छा, किन्तु तुझे यह राज-भवन क्यों नहीं पसन्द आता लोप है क्योंकि मैं गायं ब्राह्मण महाशालके प्रासादसे ही तंग आ गई थी । हमारे लिए वह प्रासाद था; किन्तु वहाँकै दास-दासियोंके लिए है और यह राजप्रासाद तो उस महाशालके प्रासादसे इज़ारगुना बड़-चढ़कर है। यहाँ मुकै और तुझे छोड़कर सारे दास-दासी हैं। दो अ-दासके कारण दासोंसे भरा यह भवन अदाल-भवन नहीं हो सकता। किन्तु मुझे आश्चर्य होता है, प्रवाहण, तेरा हृदय कितना कठोर है ! तभी तो वह कठोर वाग्यायको सह सकता है। 'नहीं, मानवको ऐसा नहीं होना चाहिए। 'मैंने मानव बननेकी नहीं, योग्य बननेकी कोशिशकी, प्रिये ! यद्यपि उस योग्यता-अर्जन समय मुझे कभी यह ख़याल न आया था कि एक दिन मुझे इस राज-भवनमें आना होगा । ‘तु पछतावा तो नहीं, प्रवाहण, मेरे साथ प्रेम करके : मैंने तेरे प्रेमको मातृ-क्षीरकी तरह अप्रयास पाया था, प्रिये ! और वह अपनेपनका अंग बन गया। मैं संसारी पुरुष हैं, लोपा ! किन्त मैं तेरे प्रेमके मूल्यको समझता हूँ। मनका प्रवाह सदा एक चा नहीं रहता । जब कभी मनमें अवसाद आता है, तो मेरे लिए जीवन दुर्लभ हो जाता है। उस वक्त तेरा प्रेम और तेरे सुविचार मुहै इस्तावलम्ब देते हैं । । 'किन्तु मैं जितना अवलम्ब देना चाहती हैं, उतना नहीं दे सकती, प्रवाहण । इसका मुझे अफसोस है।