पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१३२

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प्रचाइए जीवनमें प्रवाहणकी बातोंका वह बराबर विरोध किया करती थी; किन्तु अब इन साठ वर्षों में प्रवाहणके दोषको वह भूल चुकी थी। उसे याद था केवल प्रवाहणका वह जीवन-भरका प्रेम । अबभी वृद्धाको आखाँमै ज्योति थी, अब भी उसकी प्रतिमा बहुत धूमिल नहीं हुई थी; किन्तु ब्रह्मवादियोंसे वह अब भी बहुत चिढ़ती थी। उस दिन पंचालपुरमे ब्रह्मवादिनी गार्गी वाचकवी उतरी। राजोद्यानके पास ही एक उद्यानमें गार्गी को बड़े सम्मानके साथ उतारा गया। जनककी परिषद्मे याज्ञवल्क्यने जिस तरह धोखेसे उसे परास्त किया था, गार्गी उसे मूल नहीं सकती थी। 'तेरा सिर गिर जायगी, गार्गों, यदि आगे प्रश्न किया तो यह कोई वादका ढग न था । ऐसा उग्र-लोहितपाणि (खूनसे हाथ रंगनेवाले) ही कर सकते हैं, गाग सोचती थी । | गार्गी लोपाकै पितृ-कुलकी कन्या थी । लोपा उससे सुपरिचित थी, यद्यपि ब्रह्मवादके सम्बन्धमे वह उससे बिल्कुल असहमत थी। अबकी बार याज्ञवल्क्यने जिस तरहका ओछा हथियार उसके खिलाफ इस्तेमाल किया था, उससे गार्गी जल गई थी। इसलिए जब अपनी परदादी चुके पास गई, तो उसके भावोंमे ज़रूर कुछ परिवर्तन था । लोपाने पास आई गागके ललाट और अखिोको चूमकर छातीसे लगाया और फिर स्वास्थ्य-प्रसन्नताके बारे में पूछा। गार्गीने कहा-'मैं विदेइसे आ रहीं हैं, जुआ !' । ‘मल्लयुद्ध करने गई थी, गार्गी बेटी ! 'हो, मल्लयुद्ध ही हुआ, बुआ! यह ब्रह्मवादियोंकी परिषदे मल्लयुद्धसे बढकर कुछ नहीं हैं । मलोंकी भाँति ही इनमे प्रतिद्वन्द्वीको छल-बलसे पछाड्नेकी नीयत होती है। 'तो कुरु-पचाल के बहुत-से ब्रह्मवादी अखाड़ेमें उतरे होंगे ? 'कुरु-पंचाल तो अब ब्रह्मवादियोंको गढ हो गया है। 'मेरे सामने ही इस ब्रह्मवादकी एक छोटी-सी चिनगारी–सो भी