पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८१
प्रमा

वाराणसीसै बदलकर साकेत या अयोध्या कर दी और रामके रूपमें शृंग-सम्राट् पुष्यमित्र या अग्निमित्रकी प्रशंसाकी-वैसे ही, जैसे कालिदासने पशुवंश' के रघु और- ‘कुमारसंभव'के कुमारके नामसे पिता-पुत्र चन्द्रगुप्तं विक्रमादित्य और कुमारगुप्तकी की।

सैनापति पुष्यमित्र अपने स्वामीका बुधकर सारे मौर्य साम्राज्यको नहीं ले सका। पंजाब सारा यवनराजा मिनान्दरके हाथमें चला गया, और एक बार तो उसने साकेतपर भी घेरा डाल दिया था, जैसा कि पुष्यमित्रके पुरोहित ब्राह्मण पतजलिने लिखा है। इससे यह भी पता लगता है कि पुष्यमित्रके शासन-कालके आरम्भिक दिनोंमे भी साकेतका ख़ास महत्त्व था, और यह भी कि पतंजलि और पुष्यमित्रके समय अयोध्या नहीं, साकेत ही इस नगरका नाम था ।

पुष्यमित्र, पवजलि और मिनान्दरके समयसे हम दो सौ साल और पीछे आते हैं। इस समय भी साकेतमें बड़े-बड़े श्रेष्ठी ( सैठ ) बसते थे। लक्ष्मीका निवास होनेसे सरस्वतीको भी थोड़ी-बहुत कद्र हौंना ज़रूरी था, और फिर घर्म तथा ब्राह्मणका गुड़-चींटैकी तरह आ मौजूद होना भी स्वाभाविक या । इन्हीं ब्राह्मणोंमें एक धन-विद्या-सम्पन्न कुल था, जिसके स्वामीका नाम कालने भुला दिया; किन्तु स्वामिनीका नाम उसके पुत्रने अमर कर दिया । ब्राह्मणीका नाम था सुवर्णाक्षी । उसके नेत्र सुवर्ण जैसे पीले थे। उस वक्त पीले-नीले नेत्र ब्राह्मणों और क्षत्रियों में आम तौरपर पाए जाते थे, और पीली आँखोंका होना दोष नहीं समझा जाता था। ब्राह्मण सुवर्णाक्षीका एक पुत्र उसीकी भांति सुवर्णाक्ष, उसी माँति पिंगल केश और उसीकी भाँति सुगौर था ।

(२)

वसन्तका समय था । आमकी मजरी चारों ओर अपनी सुगन्धिको फैला रही थी 1. वृक्ष पुराने पत्तों को छोड़ नए पत्तोंका परिधान धारण “किए हुए थे। आज चैत्र शुक्ला नवमी तिथि थी। साकेतके नर-नारी •:सरयूके तटपर, जमा हो रहे थे-तैराकीके लिए । तैराकी द्वारा ही