पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

दुर्मुख राज्य स्वीकार करनेसे मैं इन्कार करता रहा, क्योंकि स्थाएवीश्वरपति महाराज प्रभाकरवर्धनका पुत्र, कान्यकुब्जाधिपति परम भट्टारक महाराजाधिराज राज्यवर्धनका अनुज हो, मैंने राज्य-भोगोंको देखकर नहीं, भोगकर असार-सा समझ लिया था। भ्राताके मारे जानेके बाद कितने ही समय तक मै राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार करता रहा। यदि भाईके हत्यारेके प्रतिशोधको क्षत्रियोचित विचार मनसे न उठ आया होता, तो शायद मै कान्यकुब्जके सिंहासनपर वैठता ही नहीं, और वह मेरी बहन राज्यश्रीके पति-कुल—मौखरि-कुल- में चला जाता, जो चस्तुतः हमारे भाई से पहले वहाँसे गुप्तके चले जानेपर राज्यको शासन करता था। यह सब मै इसलिए कहता हूँ कि मेरे बाद आनेवाले समझे कि हर्पने स्वार्थकी दृष्टिसे अपने सिरपर राजमुकुट नहीं रखा। मुझे अफसोस है, मेरे दरबारी चापलूसोने-राजा चापलूससे पिंड छुड़ा नहीं सकते, यही बड़ी मुश्किल है मुझे भी समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यके रगमे अँगना चाहा, किन्तु उनकी यह बाते मेरे साथ न्याय नही, अन्यायके लिए हैं, यद्यपि जान बूझकर नहीं । मैंने राज्य स्वीकार किया सिर्फ शील सदाचार, धर्म) पालन लिए, सारे प्राणियोंके हितके लिए। मैने विद्यादानो मारी दान समझा, इसीलिए गुप्तके वक्त से बढ़ती चली आती नालन्दाकी समृद्धिको और भी बढ़ाया, जिसमें कि वह दस सहस देशी-विदेशी विद्वानों और विद्यार्थियों को आरामके साथ विद्याध्ययन करनेका सुभीता हो । विद्वानों का सम्मान करना मेरे लिए सबसे खुशीकी बात थी, इसीलिए मैने । चीनके विद्वान् भिक्षु वेन्- चिका दिल खोलकर सम्मान किया। वाण की अद्भुत काव्य-प्रतिभाको देखकर मैंने उसे भुजंगता (लम्पटता) से हटाकर अच्छे रास्तेपर लगना चाहा–यद्यपि वह बहुत ऊपर नहीं उठ सका और कालिदासके क़दमोंपर चल सिर्फ खुशामदी कवि ही रहना चाहा । किन्तु मगधके एक छोटे से गाँवसे निकालकर उसे विश्व के सामने रखनेका प्रयास मेरे विद्या-प्रेमका ही द्योतक था।