पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

चक्रपाणि રષદ 'ठीक कहा वैद्यराज, श्रीहर्ष गहरवारोंकी जड़में घुन बनकर लगा है। इसने पिताजीको कामुक अंधा बना रखा है। ‘कुमार, मै वीस वर्षसे कान्यकुब्जेश्वरका राजवैद्य हूँ । मेरी औषधियोको कुछ गुण है।' ‘गुण सारी दुनिया जानती है, वैद्यराज ! । 'किन्तु महाराज बाजीकरणके सम्बन्धमें नाराज़ हैं। अतिकामुक पुरुषकी तरुणाईको कितनी देर तक बढ़ाया जा सकता है, कुमार १ इसीलिए आहार-विहारमें संयम करनेके लिए लिखा गया है। मैं तो कहता हूँ, मुझे मल्लग्राम ( मलव ) में बैठ जाने दीजिए; लेकिन उसको भी वे नहीं मानते।' किन्तु पिताके दोषके कारण हमें न छोड़ जाइए, वैद्यराज । गहरवारों को अब बस आपसे ही आशा है ।। 'मुझसे नहीं, कुमार हरिश्चन्द्रसे। कितना अच्छा हुआ होता, यदि गहरवार-चंशमै जयचन्द्रकी जगह हरिश्चन्द्र होते ! चन्द्रदेवके सिंहासनको हरिश्चन्द्रकी ज़रूरत थी। ‘या श्रीहर्षकी जगह वैद्यराज चक्रपाणि जयचन्द्रकै नरम सचिव हुए होते। किन्तु वैद्यराज, आपको गहरवार-सूर्यके अस्त होते समय तक हमारे साथ रहना चाहिए।' , अस्तके साथ अस्त होने के लिए भी मै तैयार हूँ, कुमार पर गहरवारोंका सूर्यास्त नहीं होगा, बल्कि हिन्दुओंका सूर्यास्त होगा। हम मल्लगामी ब्राह्मण सिर्फ सेवा और प्रोक्षणीके ही धनी नहीं, बल्कि तलवार भी धनी हैं। इसीलिए हम भी तुझसे युद्ध करना चाहते हैं, कुमार ! 'और मेरे पिता खुद अपने जामाताको सहायता देनेके लिए तैयार नहीं। पृथ्वीराज मेरा अपना वहनोई है, वैद्यराज | संयुक्ताका उससे प्रेम था, वह उसके साथ अपनी खुशीले गई। इसमें पिताको नाराज़ होनेकी क्या जरूरत १ lan. ।