पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२६२

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चक्रपाणि २६१ मैं समझता हूँ; परं जात-पाँत भी तो हमारे रास्ते में एक बहुत बड़ी रुकावट है। | रुकावट, कुमार, यह सबसे बड़ी रुकाट है। पूर्वजोंकै अच्छे कार्येका अभिमान दूसरी चीज़ है; किन्तु हिन्दुओंको हज़ारों टुकड़ोंमें सदाके लिए बाँट देना महापाप है। 'आज इसका फल भोगना पड़ रहा है। काबुल अब हिन्दुओंका न रहा, लाहौर गया और अब दिल्लीकी बारी है। | आज भी अदि हम पिथौराके साथ मिलकर लड़ सकते है । "ओह, कितना कुफ्र है, वैद्यराज || "एक कुफ है हमारी नाव कुफ्रके बोझसे रूबी जा रही है, किन्तु इम मोहके मारे एक चीज़को भी फेककर नावको हल्की करना नहीं चाहते। , 'धर्मका अजीर्णं हैं, वैद्यराज ! 'धर्मका क्षयरोग | हमने कितना अत्याचार किया है। हर साल करोड़ों विधवाको आगमें जलाया है, स्त्री-पुरुषोंकी पशुओंकी भाँति खरीद-बैच की है, देवालयों और विहारों में सोना-चाँदी तथा हीरा-मोती के ढेर लगाकर म्लेच्छ जुटेरोको निमन्त्रण दिया है और शत्रुसे मिलकर मुकाबिलेकै समय फूटमें पड़े हैं। अपनी इन्द्रिय-लम्पटताके लिए प्रजाकी पसीनेकी कमाईको बेदर्दीसै बरबाद करते हैं।' ‘लम्पटता नहीं, पागलपन, वैद्यराज ! अपनी इच्छाकी एक सहृदया स्त्री भी काम-सुखके लिए पर्याप्त है और इन्द्रियके पागलपनके लिए पचास हज़ार भी कुछ नहीं । वहाँ प्रेम हर्गिज़ नहीं हो सकता। मेरे पिताने जव पिछली संक्रान्तिके दिन अपने रनिवासकी स्त्रियों में से बहुत को ब्राह्मणों को दान दिया, तो वे रोती नहीं थीं, भीतरसे बहुत लुश थीं। मेरी भामा यह कह रही थी। 'दान लेनेवाले ब्राह्मणके घर ज़्यादासे ज्यादा एक या दो सौतिने होगी, कुमार, वहाँ सोलह सहसकी भीड़ तो न होगी। और मैं तो इसे भी दासता समझता हूँ। स्त्री क्या सम्पत्ति है कि उसका दान दिया जाय १)