पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२६८

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१५-बाबा नूरदीन काज -१३०० ई० *वह समय खतम हो गया, जब हम हिदको दुधार गायसे बढ़कर नहीं समझते थे और किसानों, कारीगरों, बनियों और राजाओंसे ज्यादा से ज्यादा धन जमाकर शोर मैजते या खुद मौज उड़ाते । अब हम गोरके गुलाम नहीं, बल्कि हिंदके स्वतंत्र खल्जी शासक हैं ।” एक छरहरे जवानने अपनी काली दाढ़ीके ऊपरी मॅछकी पतली स्याहीपर अँगुलियाँ चलाते हुए कहा- उसके सामने एक सफेद लबी दाढ़ी, वड़ा अमामा ( पगड़ी ), सफेद अचकन पहने कोई शात, संभ्रात चेहरेका आदमी घुटने टेके बैठा था। बूढ़ने कहा-"लेकिन जहाँपनाह यदि पटेलों, मुखियो, इलाकेदारोंको छेड़ा जायगा, तो वह बिगड़ जायेंगे और सल्तनतके गाँव-गाँवमें हम अपनी पल्टने मालगुजारी वसूल करनेके लिए नहीं मैज़ सकते । । “पहिले इस बातको आप तैकर डालिये कि आप हिन्दी वनकर हिंदके शासक रहना चाहते हैं, या हीरा-मोतीसे ऊँटों और खच्चरोंको भरकर ले जानेवाले गजनी-गौरके लुटेरे । अंव इमें हिंदमें रहना है जहाँपनाह !" । “हाँ, गुलामों की तरह हमारी जड़ गोरमे नहीं, दिल्लीमे है । यदि कोई विद्रोह, कोई अशाति होगी तो न हमें अरब, अफगानिस्तानसे सैना मिलनेवाली है और नहीं भागकर वहाँ टिकने का ठौर है । यह मानता हूँ जहाँपनाह !" । “तो अब हमें इस घरमें रहना है, इसीलिए इसे ठीक करना होगा, जिसमें यहाँके लोग सुखी और शांत रहें । यहाँकी प्रजामें कितने -मुसलमान हैं ? सौ वर्षमैं दिल्लीकै आस-पासको भी हम मुसलमान