पृष्ठ:शशांक.djvu/१०१

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(८१) वज्राचार्य का आदेश सुन कर दोनों भिक्खुओं ने प्रणाम किया और वे मंदिर के बाहर गए । बंधु०-तो सचमुच यशोधवलदेव आ गया है। शक्रसेन ! अब इस बार किसी की रक्षा नहीं । सोया हुआ सिंह जागा है। उसे इसका पता अवश्य लग गया है कि उसके पुत्र का मारनेवाला मैं ही हूँ। यह न समझना कि वह केवल मेरी ही हत्या करके शांत हो जायगा। वह सारे बौद्ध संघ को उखाड़ फेंकने की चेष्टा करेगा। वज्राचार्य-सचमुच भारी विपत्ति है । बंधु०-तुम मेरी बात समझ रहे हो न ? जान पड़ता है, यशोधवल के ही हाथ से मेरी मृत्यु है। अच्छा ठहरो, गणना करके भी देख लूँ। बृद्ध ने फिर दीपक जलाया और ताड़पत्र पर अंक लिखकर गणना करने लगा। अकस्मात् उसके मुँह का रंग फीका पड़ गया। ताड़पत्र और लेखनी दूर फेंक वह उठ खड़ा हुआ और ऊँचे स्वर में बोल उठा "सच समझो, वज्राचार्य, यशोधवल मुझे अवश्य मारेगा। गणना का फल तो कभी मिथ्या होने का नहीं। अब किसी प्रकार मुझे बचाओ। यशोधवल की प्रतिहिंसा बड़ी भीषण होगी!" वज्राचार्य हँस कर बोला "स्थविर ! इतने अधीर क्यों होते हो ? यशोधवल तुम्हारे प्राण लेने अभी तो आता नहीं है । तुम तो भाग्यचक्र पर विश्वास नहीं करते न?" बंधु०-सखा शक्रसेन ! क्षमा करो। न समझ कर ही मैंने दो चार कड़ी बातें तुम्हें कही थीं। यशोधवल का बड़ा डर है। उसके निरस्त्र शृंखलबद्ध पुत्र को मैंने बकरे की तरह काटा है। अवश्य उसे इसका पता लग गया है। वह मुझे छोड़ नहीं सकता। वज्रा०-अब भी तुम मृत्यु से इतना डरते हो? w