पृष्ठ:शशांक.djvu/१०२

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७ (८२) बंधु-तुम तो हो पागल, तुम्हें मैं क्या समझाऊँ ? मैं अभी मरना नहीं चाहता । अभी मुझे बहुत कुछ करना है। वज्रा०-चित्त स्थिर करो, घबराने से क्या होगा। यदि मृत्यु आनेवाली ही होगी तो व्याकुल होकर सिर पटकने से क्या बच जाओगे ? बंधुगुप्त ! तुम आर्यसंघ के नेता हो । ऐसी अधीरता तुम्हें शोभा नहीं देती। बंधु-वज्राचार्य ! जैसे हो वैसे अब मेरे प्राण बचाओ। मुझे कहीं छिपने का स्थान बताओ। ऐसा जान पड़ता है कि मंदिर के एक एक खंभे के पीछे अँधेरे में एक एक यशोधवलदेव पुत्र की हत्या का बदला लेने के लिए तलवार खींचे खड़े हैं। वज्रा०-अच्छा चलो, तुम्हें गुप्तगृह में छिपा आऊँ। बंधु-चलो। वज्राचार्य ने बंधुगुप्त का आसन लपेटकर उठा लिया | आसन उठाते ही उसके नीचे काठ की एक चौड़ी पटरी दिखाई दी जिसे हटाते ही एक गुप्त-द्वार प्रकट हुआ। वज्राचार्य ने दीपक हाथ में ले लिया और सीढ़ियों से होकर वह नीचे उतरने लगा। बंधुगुप्त भी डरता डरता साथ साथ चला। वह पीछे फिर फिरकर ताकता जाता था। मंदिर में अँधेरा छा गया।