पृष्ठ:शशांक.djvu/१०३

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बारहवाँ परिच्छेद नायक समागम संध्या का अंधेरा अब गहरा हो चला है। बाहरी टोले की एक पतली गली से एक युवती जल्दो जल्दी नगर की ओर लपकी चली जा रही है। मार्ग में बहुत कम लोग आते जाते दिखाई देते हैं। जो दो एक आदमी मिल भी जाते हैं उन्हें पीछे छोड़ती वह बराबरा बढ़ती चली जा रही है । अँधेरा अब और गहरा हो गया; सामने का मार्ग सुझाई नहीं पड़ता। युवती विवश होकर धीरे धोरे चलने लगी। अकस्मात् पीछे किसी के पैर की आहट सुनाई पड़ी। वह खड़ी हो गई, आहट भी बंद हो गई। युवती इधर उधर देखकर फिर चलने लगी। कुछ देर में उसे जान पड़ा जैसे कोई उसके पीछे पीछे आ रहा है। वह फिर खड़ी हो गई, पैर का शब्द फिर थम गया। युवती इधर उधर ताककर एक अट्टालिका के कोने में छिप गई । वहाँ से उसने देखा कि सिर से पैर तक कपड़े से ढकी एक मनुष्य-मूर्ति दबे पाँव धीरे धीरे गली में चली जा रही है। अँधेरे में वह उसका मुँह न देख सकी । जब वह ममुष्य आगे निकल गया तब युवती निकलकर उसके पीचे पीछे चली। वस्त्र से ढका हुआ जो मनुष्य चला जाता था वह कुछ दूर जाकर आप ही आप बोल उठा "न, इधर नहीं गई । चलें, लौट चलें"। युवती ने सुन लिया और फिर एक घर की आड़ में अँधेरे में छिप गई । वह मनुष्य धीरे धीरे लौटने लगा। जब वह अँधेरे में दूर निकल