पृष्ठ:शशांक.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(८४) गया तब वह युवती फिर निकलकर जल्दी जल्दी चलने लगी। आधा दंड भी नहीं बीता था कि पीछे फिर वही पैरों की आहट सुनाई पड़ने लगी । अब तो वह कुछ डरी और मार्ग के किनारे के झाड़ों और पेड़ों में जा छिपी। थोड़ी देर में वह कपड़ों से ढंका हुआ मनुष्य फिर दिखाई पड़ा। वह कुछ दूर जाकर फिर लौट पड़ा और ठीक उसी स्थान से होकर चला जहाँ युवती छिपी थी । पास पहुँचते ही उसके मुँह से निकला “न, इस बार वह निकल गई । तरला, तू ने गहरा झाँसा दिया ।” जब वह कुछ दूर निकल गया तब युवती झाड़ों से निकल बीच रास्ते में आ खड़ी हुई और पुकारने लगी “अरे बाबा जी, ओ आचारी बाबा ! उधर कहाँ जाते हो ?" कपड़े से ढका हुआ वह मनुष्य चौंककर खड़ा हो गया। युवती हँसकर बोली "बाबा जी ! कोई डर नहीं, मैं हूँ तरला ।" वह वस्त्र का आवरण हटा तरला के पास आया और उसने उसके मुँह को अच्छी तरह देखा । फिर मुसकरा- कर बोला "क्या सचमुच तरला ही है ? हे लोकनाथ ! कृपा करो।" तरला-बाबा जी ! इतनी रात को किसके पीछे निकले थे ? देशा०-बहुत ठंढ है-थोड़ी-आग लेने निकला था। तरला-कहते क्या हो, बाबा जी! अरे इतनी गरमी में तुम्हें जाड़ा लग रहा है ? क्या वात ने ज़ोर किया है ? देशानंद चुप । तरला ने फिर पूछा “यदि किसी के पीले नहीं निकले थे तो कपड़े के भीतर सिर क्यों ढाक रखा था ?" देशा०-कोई पहचान लेता तो? तरला तो क्या किसी स्त्री से मिलने अभिसार को चले थे ? देशा o-न, न, हम लोग संसारत्यागी भिक्खु हैं। हम लोग क्या अभिसार करते हैं ? तरला-बाबा! चलो उजाले में चलें।