पृष्ठ:शशांक.djvu/१३८

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। ( ११८) मानोगी नहीं, व्यर्थ क्यों अपने कुँवरकन्हैया का रूप वर्णन करके सिर खपाऊँ । तुम्हारी ही बात कह चलती हूँ | मैंने बाहर निकलकर नागर के साथ बातचीत की। प्रेम का पंथ ही कुछ निराला है, तुम जानती ही हो। उस रसालाप का आनंद मैं क्या कहूँ ? सेठ के बेटे के मुँह में मुँह डालकर किस आनंद से बातचीत करती थीं, है स्मरण ? बस उसीसे समझ लो। ऐसी सुहावनी चाँदनी में नागर कहीं नागरी को छोड़ सकता है ? अग्नि के अभाव में चन्द्र को साक्षी बनाकर हम दोनों ने गांधर्व विवाह कर लिया-"। यूथिका -चल तू बड़ी दुष्ट है। तेरा यह सब रसरंग मुझे इस समय नहीं सुहाता है, मेरे सिर की सौगंध, सच सच कह क्या हुआ । तरला-कहती हूँ न, भला यह कौन सी बात है कि तुम मेरी प्रेम कथा न सुनो। यही न कि तुम्हारा यौवन मुझसे अभी कुछ नया है इससे क्या हुआ ? यूथिका चिढ़कर उठा ही चाहती थी कि तरला ने उस का हाथ थामकर बैठाया और बोली "सुनो, कहती हूँ, इतनी उतावली न करो। वह बुड्ढा भिक्खु सचमुच मेरे लिए पागल होकर मेरे पीछे लगा था। ज्योंही मैं ओट से निकलकर उसके सामने आई वह मेरे पैरों पर लोट गया। मैं भी उसे बढ़ावा देकर स्वर्ग का स्वप्न दिखाने लगी। मैं वसुमित्र से कह आई हूँ कि जिस प्रकार से होगा उस प्रकार से मैं तुम्हें छुड़ाऊँगी। रास्ते में सोचती आती थी कि कहने को तो मैंने कह दिया पर छुड़ाऊँगी किस उपाय से, इतने में भगवान् ने एक उपाय खड़ा कर दिया। उस बुड्ढे से मैं कह आई हूँ कि कल फिर मिलूँगी । उसीकी सहायता से मैं मठ के भीतर जाऊँगी और वसुमित्र को छुड़ाऊँगी। किस उपाय से छुड़ाऊँगी यह अभी तक मैं नहीं स्थिर क पराई हूँ। अब इस विषय में और कुछ बातचीत न करना । सेठानी