पृष्ठ:शशांक.djvu/१५७

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बीसवाँ परिच्छेद तरला और यशोधवल तरला उसी रात वसुमित्र को लिए अपनी मासी के घर लौटी। द्वार पर खड़ी-खड़ी वह घंटों चिल्लाई, तब जाकर कहीं बुड्ढी की आँख खुली । वह न जाने क्या-क्या बड़बड़ाती हुई उठो और आकर किवाड़ खोला। तरला वसुमित्र को लिए घर के भीतर गई। वे दोनों किस वेश में थे, बुड्ढी अँधेरे में कुछ भी न देख सकी। वसुमित्र को एक कोठरी में सोने के लिए कहकर तरला अपनी मासी की खाट पर जाकर पड़ रही । बुढ़िया बहुत चिड़चिड़ाई। बुढ़ापे में एक तो नींद यों ही नहीं आती, उसपर से यदि बाधा पड़ी तो फिर जल्दी नींद कहाँ ? बुड्ढी बकने लगी “तू न जाने कैसी है; इतनी रात को एक आदमी को साथ लाई और उसे एक कोठरी में ढकेलकर आप मेरे सिर पर आ पड़ी। अपने घर किसी को लाकर उसके साथ ऐसा ही करना होता है ?' तरला ने धीरे से कहा “उस घर में मच्छड़ बहुत हैं, आँख नहीं लगती । बुडढी यह सुनते ही झल्ला उठी और चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी “अब तू ऐसी बड़ी ठकुरानी हो गई कि मच्छड़ लगने से तुझे नींद नहीं आती? तब तू किसी के घर का कामधंधा कैसे करती होगी ? तेरे बाप दादा तेरे लिए राज न छोड़ गए हैं; जो तू पैर पर पैर रखे रानो बनी बैठी रहेगी ।” बुढ़िया अपना मनमाना बर्राती रही, तरला चुपचाप खाट के किनारे पड़ी रही। पर बुढ़िया की बातों की चोट और चिंता से उसे रात भर नींद नहीं आई।