(१३८) सूर्योदय के पहले ही चिड़ियों की चहचह सुनकर तरला उठ बैठी और अपनी मासी को सोते देख धीरे से चारपाई के नीचे उतरी। रात भर पड़े-पड़े उसने सोचा था कि वसुमित्र की रक्षा तभी हो सकती है जब सम्राट तक किसी प्रकार उसकी पहुँच हो जाय । यों तो दिन में जब कभी भिक्खु उसे देख पावेंगे, तुरंत पकड़ ले जायेंगे और किसी को कुछ बोलने का साहस न होगा। उसने मन ही मन स्थिर कर रखा था कि सवेरा होते ही उसे लेकर मैं प्रासाद में जाऊँगी और अंतःपुर के द्वार पर बैठी रहूँगी । वहाँ से उसे कोई पकड़- कर नहीं ले जा सकेगा। तरला ने अपना भेस बदला और जो कपड़े वह उस दिन मोल लाई थी, उन्हें वसुमित्र को देकर पहनने के लिए कहा । भिक्खुओं का जो पहनावा था उसे घर के एक कोने में छिपाकर रख दिया। यह देख कि मासी अभी पड़ी सो रही है, वह दवे पाँव घर के बाहर निकली। राजपथ पर अभी तक लोग आते जाते नहीं दिखाई देते थे । पूर्व की ओर प्रकाश की कुछ कुछ आभा दिखाई पड़ रही थी, पर मार्ग में अँधेरा ही था । दोनों जल्दी जल्दी चलकर प्रासाद के तोरण पर पहुँचे। तोरण पर अभी तक प्रकाश जल रहा था । चारों ओर प्रतीहार पड़े सो रहे थे। उनमें से केवल एक भाला टेककर खड़ा नींद में झूम रहा था । तरला चुपचाप उसकी बगल से होकर निकल गई और उसे कुछ आहट न मिली । तोरण के इधर उधर कई कुत्ते पड़े सो रहे थे। वे आदमी की आहट पाकर भाँव भाँव करने लगे। प्रतीहार जाग पड़े। उन्होंने सामने वसुमित्र को देख उसका हाथ पकड़कर पूछा “कहाँ जाता है ?" इतने में तरला प्रतीहार का पैर पकड़ रो रोकर कहने लगी "हम लोगों पर बड़ी भारी विपचि है, हम लोगों को जाने दो। मैं अपने भाई की प्राणरक्षा के लिए महाराजाधिराज के पास जा रही हूँ। दिन को जहाँ भिक्खु इसे देख पावेंगे पकड़ ले जायँगे और मार डालेंगे। हम लोग
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