पृष्ठ:शशांक.djvu/२२७

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. (२०६ ) “मागध वीरो ! समुद्रगुप्त का नाम सुना है ? खेत की घास के समान जिसने अच्युत और नागसेन को उखाड़ फेंका, जिसके पदचिह्न का अनुसरण करके सैकड़ों वर्ष पीछे तक मागध सेना निरंतर विजय- के लिए निकलती रही वह समुद्रगुप्त ही थे" । "सात सौ वर्ष पर मगधराज फिर विजययात्रा के लिए निकले हैं। आर्यावर्च में रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, नंदी, बलवर्मा प्रभृति राजाओं के अधिकार लुप्त हो गए, दिग्विजयाभिलाषी चंद्रवर्मा छड़ी खाए हुए कुत्ते के समान भाग खड़े हुए, नलपुर में गणपतिनाग का ऊँचा सिर नीचा हुआ, आर्यावर्त्त फिर एक छत्र के नीचे आया। आटविक राजाओं ने सिर झुकाकर सेवा स्वीकार की, सारा आर्यावर्च जीत लिया गया, अब समुद्रगुप्त की विजयवाहिनी दक्षिण की ओर यात्रा कर रही है" "महाकोशल में महेंद्र का प्रताप अस्त हुआ, भीषण महाकांतार में व्याघ्रराज ने कुत्ते के समान पूँछ हिलाते हुए दासत्व स्वीकार किया । पूर्व समुद्र के तट पर मेघमंडित महेंद्रगिरि पर स्थित दुर्जय कोट्ट दुर्गाधिप स्वामिदत्त, पिष्टपुरराज महेंद्र, केरल के मंटराज, एरंडपल्ल के दमन ने अपना अपना सिंहासन छोड़ सामंतपद ग्रहण किया। "मागध सेना दाक्षणात्य की ओर चली है। सैकड़ों लड़ाइयाँ जीतनेवाले पल्लवराज ने कांचीपुरी में आश्रय लिया, "किंतु कांची का पाषाणप्राचीर और शंकर का त्रिशूल भी विष्णुगोप की रक्षा न कर सका | नगर के तोरण पर गरुड़ध्वज स्थापित हो गया। अविमुक्तक्षेत्र में नीलराज, वेंगीनगर में हस्तिवर्मा और पलक्व में उग्रसेन ने दाँतों तले तृण दबाकर अपनी पगड़ी महाराजाधिराज के पैरों पर रख दी। पर्वतवेष्ठित देवराष्ट्र में कुबेर और कुस्थलपुर में धनंजय राज्यच्युत हुए। डर के मारे समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल और कर्नु पुर के नरपतियों ने अधीनता स्वीकार करके कर दिया। 9 v