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पृष्ठ:शशांक.djvu/२२८

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(२१०) . "विजयवाहिनी अब मगध लौट रही है। अवंतिका के मालव, आभीर और प्रार्जुन, आटविक प्रदेश के सनकानीक, काक और खरप- रिक; सप्तसिंधु के अर्जुनायन, यौधेय और मद्रक गणों ने भी, जिन्होंने कभी राजतंत्र स्वीकार नहीं किया था, महाराजाधिराज के चरणों पर सिर झुकाया।" "महाराजाधिराज पाटलिपुत्र लौट आए हैं । देवपुत्रसाहि, साहानु- साहि, शक, मुरुण्ड आदि वर्वर म्लेच्छ राजाओं ने भयभीत होकर अनेक प्रकार के अलभ्य रत्न भेजे हैं। समुद्र पार सिंहलराज का सिंहासन भी काँप उठा है । शत्रुओं की कुलांगनाओं ने सब लोक लजा छोड़ विजयी सेना दल की अभ्यर्थना की है। सैकड़ों राजाओं के मुकुटों से रत्न निकाल निकाल कर महाराजाधिराज पाटलिपुत्र नगर के राजपथ पर भिक्षुकों की झोली में फेंकते जा रहे हैं । नृग, नहुष, ययाति, अंबरीष आदि राजाओं ने भी ऐसा दिग्विजय न किया होगा ।" "कलि में अश्वमेध यज्ञ किसने किया ? जिन्होंने दासी-पुत्र के वंश को मगध के पवित्र राजसिंहासन पर से हटाया, जिसके भय से वायव्य दिशा के पर्वतों के यवन तक काँपते रहते थे उन्होंने किया । और दूसरा कौन करेगा ? किसका अश्व दिगंत से दिगंत तक घूम कर आया है ? किसके यज्ञ की दक्षिणा पा कर ब्राह्मण फिर ब्राह्मण हुए हैं ? ऐसा कौन है ? महाराजाधिराज समुद्रगुप्त ।" गीत की ध्वनि थम गई। सहस्रों कंठों से जयध्वनि उठी । भीषण नाद सुन कर कपोतिक संघाराम की गढ़ी में बैठे महास्थविर बुद्धघोष दहल उठे। किर गीत की ध्वनि उठी- "भाइयो ! दो सौ वर्ष बीत गए, पर मगध मगध ही है। फिर विजय यात्रा के लिए मगध सेना निकला चाहती है। पूरा भरोसा है