पृष्ठ:शशांक.djvu/२५३

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( २३५ ) शशांक-मैं यशोधवल को लिख भेजता हूँ, वे वसुमित्र के साथ सारी नौसेना भेज देंगे। बीरेंद्र०-वंगदेश का क्या किया जायगा? पीछे शत्रु छोड़कर आगे दूरदेश में बढ़ना रणनीति के विरुद्ध है। गौड़ देश के सामंतों ने एक स्वर से वीरेंद्रसिंह की बात का समर्थन किया। उन्होंने कहा कामरूव पर चड़ाई करने का मुख्य उद्देश्य तो सफल हो गया। जो सेना वंगदेश में विद्रोहियों को सहायता देने जाती थी वह तो एक प्रकार से निमूल हो गई। अब जब तक भास्करवा फिर से नई सेना न खड़ी करेंगे वे युद्ध के लिए नहीं आ सकते। अब इस समय चटपट लौटकर वंगदेश के विद्रोह का दमन करना चाहिए"। शशांक ने विवश होकर कामरूप की चढ़ाई का संकल्प त्याग दिया। यह स्थिर हुआ कि एक सेनानायक दो सहस्र अश्वारोही और दो सहस्र पदातिक लेकर भास्करवा की गतिविधि पर दृष्टि रखने के लिए ब्रह्मपुत्र के तट पर रहे, शेष सेना लौट चले। मंत्रणासभा विसर्जित होने पर वीरेंद्रसिंह ने कहा "कुमार ! मैंने भास्करवा के शिविर में एक पेटी के भीतर कई रत्न पाए हैं, अब तक आपको दिखाने का अवसर नहीं मिला था"। युवराज और नरसिंहदत्त बड़ा आग्रह प्रकट करते हुए वीरेंद्रसिंह के डेरे में गए। वारेंद्रसिंह ने कपड़े के एक बेठन के भीतर से एक छोटा सा चाँदी का डिब्बा निकालकर दिखाया और पूछा "इसके भीतर क्या है कोई बता सकता है ?" युवराज बोले "न । डिब्बे के ऊपर कुमार भास्करवा का नाम तो दिखाई पड़ता है"। वीरेंद्रसिंह ने डिब्बा खोलकर उसके भीतर से कई फटे हुए भोजपत्र बाहर निकाले। उन्हें देख कुमार बोल उठे "ये तो चिट्ठियाँ जान पड़ती हैं। किसकी है ?" "पढ़कर देख लीजिए"।