सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शशांक.djvu/२५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तरला- (२४१) उसको लजाई देख महादेवी ने पूछा । “तुम आज आई क्यों नहीं, क्या हुआ है ?" यूथिका कोई उचर न देकर पैर के अंगूठे की ओर देखने लगी । तरला आगे बढ़कर बोली “देवि ! श्रेष्ठिकन्या महादेव के मंदिर में पूजा कर रही थीं। महा०-यूथिका, इतनी लजाई क्यों है ? -चित्रादेवी की सी बात इनको भी है। यूथिका ने लजाकर और भी सिर झुका लिया। इतने में लतिका चित्रा का हाथ पकड़े उसे खींचती हुई ले आई। महादेवी ने उससे पूछा "चित्रा ! तू क्या मना रही थी ?” चित्रा लज्जा के मारे कुछ बोल न सकी । महादेवी उसे अपने पास खींच कर बोली “लजाने की क्या बात है ? मुझसे धीरे से कह दो, कोई सुनेगा नहीं।" चित्रा महा- देवी की गोद में मुँह ढाँक कर सिसकने लगी। महादेवी ने उसे शांत करके तरला से पूछा “तरला ! ये तो सब की सब बड़ी भारी भक्तिन हो गई तुम्हारा साथ अब कौन देगा ? तरला मुस्कराती हुई बोली "मेरा साथ देंगे यमराज " लतिका महादेवी के पास उनके कान में धीरे से बोली "नहीं माँ, इनका एक और साथी है, उसका नाम है वीरेंद्रसिंह ? तरला ने एक दिन अपनी कोठरी की दीवार पर वीरेंद्रसिंह का नाम लिखा था पर मुझे देखते ही उसे मिटा दिया ।” यद्यपि यह बात धीरे से कही गई थी पर सब ने सुन ली और बड़ी हँसी हुई। तरला सकुच कर पीछे जा खड़ी हुई। इतने में एक दासी ने आकर कहा "महादेवी ! महाप्रतीहार विनयसेन श्रीमती का दर्शन चाहते हैं।" महादेवी ने कहा “उन्हें यहीं बुला लाओ।" क्षण भर में विनयसेन मंदिर के आँगन में आ पहुँचे और उन्होंने सिर झुका कर प्रणाम किया । महादेवी ने पूछा “विनय, कहो क्या है ?"