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पृष्ठ:शशांक.djvu/३३१

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योद्धा को लिए लौटा । उसने प्रणाम करके जिनेंद्रबुद्धि से कहा “प्रभो ! कुछ गुप्त संवाद है ।" जिनेंद्रबुद्धि बोले “ये संघस्थविर बंधुगुप्त हैं। महासंघ की कोई बात इनसे छिपी नहीं है, तुम बेधड़क कहो।" उसने फिर प्रणाम करके कहा “सम्राट और महानायक यशोधवलदेव बहुत सी अश्वारोही सेना लेकर महाबोधि की ओर आ रहे हैं । हम लोगों के गुप्तचर ने कल रात को उन्हें प्रवरगिरि के नीचे शिविर में देखा था। बड़े तड़के मैं संबाद पाते ही चल पड़ा। अब वे विष्णुपदगिरि को पार कर चुके होंगे।"

इतना सुनते ही बंधुगुप्त घबराकर उठ खड़े हुए। यह देख जिनेंद्र- बुद्धि बोले “संघस्थविर ! कोई डर नहीं है, घबराओ मत । अश्वारोही को विदा करके वे बंधुगुप्त को साथ लिए महाबोधि विहार में गए । उस समय भी महाबोधि विहार के ऊपर चढ़ने के लिए दो स्थानों पर सीढ़ियाँ थीं, उस समय भी विहार के दूसरे खंड में भगवान् शाक्यसिंह की पत्थर की खड़ी मूर्ति थी। दोनों दक्षिण और की सीढ़ी से चढ़कर दूसरे खंड में पहुँचे और वहाँ से भुइँहरे में उतरे । वहाँ एक रक्तांबरधारी भिक्खु बैठा पूजा कर रहा था। जिनेंद्रबुद्धि ने उसे बाहर जाने को कहा । उसे वहाँ से निकल जाना पड़ा। जिनेंद्रबुद्धि ने गर्भगृह का द्वार बंद करके बंधुगुस के हाथ में एक दीपक देकर कहा "मैं आपको ऐसे स्थान पर ले चलकर छिपा देता हूँ जहाँ सौ वर्ष हूँढता हूँढ़ता मर जाय तो भी आपके पास तक कोई नहीं पहुँच सफता । विहार के चौड़े प्राकार के बीचोबीच सुरंग है जो बोधिद्रुम के नीचे से होकर गया है।" इतना कहकर जिनेंद्रबुद्धि ने दीवार पर हाथ फेरा । हाथ रखते ही एक छोटा सा द्वार खुल पड़ा । दोनों उसके भीतर घुस
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  • प्रवरगिरि=बराबर पहाड़ ।