पृष्ठ:शशांक.djvu/३६४

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तुम. इसका प्रायश्चित करना। महासेनगुप्त के वंश में जो कोई हो उसकी सेवा में अपना जीवन उत्सर्ग कर देना। तभी मेरी आत्मा को शांति मिलेगी। थानेश्वर) से मगध साम्राज्य को बड़ा भारी भय तुम सदा समुद्रगुप्त के वंशधर का साथ देना । यशो ०-धन्य ! समरभीति धन्य ? बेटा सैन्यभीति, तुम दक्षिण से यहाँ अकेले आए हो या तुम्हारे साथ कोई और भी है ? सैन्य० o-एक आदमी और है।। यशो०-तुम्हारी स्त्री होगी ? सैन्य-नहीं, मेरी बहिन है मेरा तो विवाह ही नहीं हुआ है। यशो -उसे किसके यहाँ छोड़ा है ? सैन्य०-आर्य! वह यहीं है आज्ञा हो तो ले आऊँ। यशोधवलदेव के कहने पर सैन्यभीति बाहर गए और थोड़ी देर में एक अत्यंत रूपवती युवती को साथ लिए आ खड़े हुए। रूप-लावण्य और दक्षिणी पहनावा देख सब मोहित से हो गए । शशांक भी उसकी ओर बड़ी देर तक ताकते रह गए। सैन्यभीति बोले- आर्य ! जिस समय पिताजी महाराजाधिराज समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त के प्रताप और पराक्रम की कहानियाँ कहते थे हम दोनों भाई बहिन बड़े ध्यान से सुनते थे। उस समय हम दोनों के मन में यही होता कि किसी प्रकार समुद्रगुप्त के किसी वंशधर का दर्शन दरते । कुछ दिनों में समुद्रगुप्त के वंशधर श्रीशशांक नरेंद्रगुप्त के बल और पराक्रम की बातें दक्षिण में पहुँचने लगीं। मुझसे वातापिपुर में न रहा गया। मैं चल खड़ा हुआ। मेरे साथ मेरी बहिन (मालती भी हो ली। उसकी उत्कंठा मेरी उत्कंठा से भी कहीं अधिक बढ़ी हुई थी"। उसका