पृष्ठ:शशांक.djvu/३७

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(१७) खटाए। कुछ काल तक वह खड़ा रहा पर जब उसने देखा कि किवाड़ नहीं खुलता है तब वह फिर किवाड़ खटखटाने लगा । इस प्रकार दो घड़ी के लगभग बीत गए । बालक गदहे पर बैठा थककर ऊँघने लगा। नगर में सन्नाटा छा गया। दिन ढलने पर गली में और भी अँधेरा छा गया । तेली घबरा कर किवाड़ पीटने लगा । उसके धक्कों से किवाड़ टूटा ही चाहते थे कि भीतर से किसी स्त्रीकंठ का अस्फुट आर्चनाद सुनाई पड़ा । रोने के साथ जो शब्द मिले थे उन्हें ठीक ठोक कहना असंभव है। उनका भावार्थ यह था “घर में डाकू आ पड़े हैं, नगर में कहीं कोई प्रतिवेशी है या नहीं ! आकर मेरी रक्षा करो। राजा के भांजे के साथ थानेश्वर से जो दुष्ट सैनिक आए हैं वे मुझे अनाथ, असहाय और विधवा देखकर मुझपर अत्याचार कर रहे हैं । आकर बचाओ, नही मैं मरी। मेरी जाति, कुल, मानमर्यादा सब गई।" कुछ प्रतिवेशियों के कान में उस स्त्री का चिल्लाना पड़ चुका था। वे खिड़की हटाकर देखना चाहते थे कि भीतर क्या हो रहा है ! दो एक अपने वचनों से अभयदान भी दे रहे थे। एक पड़ोसी की दृष्टि द्वार पर खड़े गदहे पर पड़ी। वह चिल्ला- उठा “अरे देखते क्या हो ? थानेश्वर के सवार आ पहुँचे ।" सुनते ही पाटलिपुत्र के वीर निवासी अपने अपने किवाड़ बंद कर भीतर जा घुसे । स्त्री का रोना चिल्लाना बढ़ने लगा। तेली को अँधेरे में और कुछ न सूझा, उसने पैर के धक्कों से किवाड़ खोल दिए और घर के भीतर घुसा । स्त्री बड़े जोर से चिल्ला उठी, चिल्लाकर फिर मूञ्छित हो गई या क्या कुछ समझ में न आया। तेली ने अपने बैल, गदहे और बालक को भीतर करके किवाड़ बंद कर लिए। उसके पीछे स्त्री का चिल्लाना किसी ने न सुना ।