छोड़ें। (३५७ ) उधर माधववर्मा, अनंतवा और वीरेंद्रसिंह युद्ध में योग देने के लिए अधीर हो रहे थे। शशांक बड़े असमंजस में पड़े । इधर जब से शशांक रोहिताश्वगढ़ से आए हैं तब से शक्तिहीन से हो रहे हैं । वे सदा अनमने से रहते हैं, उनका जी ठिकाने नहीं रहता। प्रत्येक बात का उत्तर वे कुछ चौंककर देते हैं। सम्राट की यह अवस्था देख माधववर्मा और अनंतवर्मा अत्यंत विस्मित हुए । थानेश्वर की सेना एक बार हार चुकी थी सही पर हर्षवर्द्धन का प्रभाव आर्यावर्च में बहुत कुछ था । प्राचीन गुप्तवंश का गौरव फिर से स्थापित करने के लिए हर्षवर्द्धन का प्रभाव नष्ट करना अत्यंत आवश्यक है इस बात को छोटे से बड़े तक सब जानते थे। नए सम्राट के नेतृत्व में कई बार विजय प्राप्त करके मागध सेना उमंग में भरी किसी नए अवसर का आसरा देख रही थी। पाटलिपुत्र के क्षुद्र से क्षुद्र मनुष्य को यह निश्चय हो गया था कि समुद्रगुप्त के वंशधर समुद्रगुप्त के साम्राज्य पर फिर अधिकार करेंगे। जय और पराजय, सिद्धि और असिद्धि के इस संधिस्थल पर नए सम्राट को कर्त्तव्य-विमूढ़ देख गुप्त राजवंश के जितने हितैषी थे सब भाग्य को दोष देने लगे। अदृष्ट चक्र किधर से किधर घूमेगा यह उस चक्रधर के अतिरिक्त और कोई नहीं कह सकता। जिस समय गुप्त साम्राज्य के सेनानायक नवीन रणक्षेत्र के लिए अधार हो रहे थे उस समय प्राचीन गुप्त साम्राज्य का भाग्यचक्र दूसरा ओर मुड़ रहा था । बारंबार के आघात से नए सम्राट का हृदय यदि जर्जर न हो गया होता, तरुणावस्था में ही चोट पर चोट खाते खाते शशांक का हृदय यदि दुर्बल न हो गया होता तो सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का इतिहास और ही प्रकार से लिखा जाता। बहुत संभव था कि लाख विघ्नबाधाओं के रहते भी शशांक- " नरेंद्रगुप्त अपने पूर्वपुरुषों का सब अधिकार फिर प्राप्त कर लेते । भावी प्रबल है, भीषण से भीषण पुरुषार्थ उसे नहीं हटा सकता । इस पर
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