सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शशांक.djvu/३७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ३५८) । विषय में दार्शनिक पंडितों के बीच चाहे मतभेद हो, पर अदृष्टवादियों के निकट तो यह ध्रुव सत्य है । जिस समय नए सम्राट थानेश्वर के साथ युद्ध करने की तैयारी कर रहे थे वृद्ध धर्माधिकार सम्राट से राजधानी में ही रहने के लिए बार बार अनुरोध कर रहे थे और युद्धव्यवसायी चटपट रणक्षेत्र में उतरने का परामर्श दे रहे थे। उसी समय पूर्णिमा के पूर्ण शशांक को ढाँकने के लिए, गुप्तसाम्राज्य की फिर से बढ़ती हुई कीर्चिकला को दृष्टि से ओझल करने के लिए, उत्तरपूर्व के कोने पर से एक काला मेघ उठता दिखाई पड़ा। भगदत्तवंशीय कामरूप के राजा गुप्तवंश के सम्राटों के पुराने शत्रु थे। लौहित्या के किनारे कामरूपराज सुस्थितवर्मा महासेनगुप्त के हाथ से पराजित हो चुके थे। महावीर यज्ञवर्मा ने परशु का आघात अपने ऊपर लेकर सम्राट् की जीवनरक्षा की थी। शंकरनद के तट पर विलक्षण संयोग से कुमार भास्करवा शशांकनरेंद्रगुप्त द्वारा हराए जा चुके थे। उस समय जो संधि हुई थी उसका पालन अब तक होता आया था। राज्यवर्धन के मरने पर जब हर्षवर्द्धन भाई की इत्या का बदला लेने और आर्यावर्त से शशांक का अधिकारी लुप्त करने निकले तब कामरूपवालों ने भी अच्छा अवसर देख युद्धघोषणा कर दी। पाटलिपुत्र में बैठे बैठे शशांक ने सुना कि कामरूप की सेना शंकरनद पार करके वंगदेश की ओर बढ़ी आ रही है। कामरूप के राजाओं के इस आचरण का संवाद पाकर तरुण सम्राट का मोह कुछ दूर हुआ। सोता हुआ सिह जाग पड़ा ।, शशांक की नींद टूटी। सिर पर विपचि देखते ही उनका शैथिल्य हट गया। उन्होंने स्थिर किया कि वीरेंद्रसिंह और माधववा भास्करवा के विरुद्ध वंगदेश की ओर जायें और वे आप अनंतवर्मा को साथ लेकर कान्य-