पृष्ठ:शशांक.djvu/४७

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( २७ ) . आई । मुट्ठी भर शांतिरक्षकों ने जब देखा कि झगड़ा शांत नहीं होता है तब वे किनारे हट गए । पूरा युद्ध छिड़ गया। थानेश्वर के सैनिक तो झगड़े के लिये सन्नद्ध हो कर आए ही थे, अस्त्र-शस्त्र उनके साथ थे। पाटलिपुत्र वाले लड़ाई के लिये तैयार होकर नहीं आए थे। किसी के हाथ में छकड़े का बल्ला था, कोई मोट लिए था, कोई लोटा । पर संख्या में वे विदेशियों के तिगुने थे। थानेश्वर के सैनिक पहले तो दो चार कदम पीछे हटे, पर पीछे उनके भालों और तलवारों के सामने नागरिकों का ठहरना कठिन हो गया। किसी का माथा फूटा, किसी के हाथ पैर कटे, किसी की पीठ में चोट आई, पर कोई मरा नहीं। रक्तपात देखते ही नागरिक पीछे हटने लगे, पर भागे नहीं, डेरों और पेड़ों की ओट में होकर दूर से वे लगातार पत्थर बरसाने लगे। उसी समय गंगातट के मार्ग से पाटिलपुत्र की सेना का एक दल शिविर की ओर आता दिखाई पड़ा। कितु उसे देख नागरिक कुछ विशेष उत्साहित न हुए और एक एक दो दो करके भागने लगे। उन्होंने समझ लिया कि उनकी स्वदेशी से ना झगड़े की बात सुन कर उनका साथ तो देगी नहीं, उलटा भला-बुरा कहेगी । इसी बीच में नदी तट के मार्ग से एक रथ अत्यंत वेग से नगर की ओर जाता था। युद्धक्षेत्र के पास पहुँचते ही एक बड़ा सा पत्थर सारथी के सिर पर आ पड़ा और वह चोट खाकर नीचे गिर पड़ा। उसके गिरने से जो धमाका हुआ उससे चौंक कर घोड़े प्राण छोड़कर नगर की ओर भाग चले । यह देख रथारूढ़ व्यक्ति झट से नीचे कूद पड़ा। उतरते ही पहले वह सारथी के पास गया। जाकर देखा तो वह जीता था, पर उसका सिर चूर हो गया था। क्रोध के मारे उसका चेहरा लाल हो गया । इतने में पाटलिपुत्र के नागरिकों का फेंका हुआ एक पत्थर उसके कान के पास से सनसनाता हुआ निकल गया और सड़क के किनारे एक शिविर पर जा पड़ा। रथवाला व्यक्ति यह देखकर चकित हो गया। वह कोष से