( २८ ) खङ्ग खींच कर जिस ओर से पत्थर आते थे उसी ओर को लपका। जो लोग पेड़ की आड़ से पत्थर फेंक रहे थे वे सिर निकाल कर झाँकने लगे । पत्थरों की वर्षा कुछ धीमी पड़ी। नगर की ओर जाती हुई सेना अब पास पहुँच गई थी, इससे नागरिकों में से जिसे जिधर रास्ता मिला वह उधर भागने लगा। पेड़ की ओर से जो कई आदमी पत्थर चला रहे थे रथ पर के मनुष्य को अपनी ओर आते देख सरकने का डौल करने लगे। इतने में एक उनमें से बोल उठा "अरे! ये तो हमारे युवराज हैं ।" एक ने सुन कर कहा “अरे, बावला हुआ है ? युवराज अभी लड़के हैं, वे यहाँ क्या करने आएंगे ?" प्रथम व्यक्ति-क्यों, क्या युवराज घूमने-फिरने नहीं निकलते ? द्वितीय व्यक्ति-युवराज को इस इतने बड़े पाटलिपुत्र नगर में और कहीं घूमने की जगह नहीं है जो वे इस दोपहर की धूप में इस रेत में आएँगे? १म व्यक्ति-अरे तू क्या जाने, युवराज के मन की मौज तो है। -अच्छा तू जाकर अपने युवराज को देख, मैं तो चला। पहले व्यक्ति ने पेड की ओट से निकल कर “युवराज की जय हो" कह कर रथ पर के मनुष्य का अभिवादन किया। वह विस्मित होकर उसे देखता रह गया । दूसरा व्यक्ति पेड़ के पास से भाग रहा था । रथ पर के मनुष्य ने उसे खड़े रहने के लिये कहा । वह भी कंठस्वर सुनते ही बोल उठा “युवराज की जय हो ।” अब तो जितने नागरिक इधर- उधर लुके-छिपे थे आ-आ कर अभिवादन करने लगे। देखते-देखते उस पेड़ के पास बहुत से लोग इकट्ठे हो गए । नागरिकों को तितर-बितर होते देख थानेश्वर के सैनिक निश्चित हो रहे थे। पेड़ के नीचे कुछ भीड़ जमी देख वे भी पत्थर फेंकने लो। ईट का एक टुकड़ा आकर रथ पर के मनुष्य के शिरस्त्राण में लगा । यह देख नागरिक फिर खलबला उठे। २य व्यक्ति ।
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