पृष्ठ:शशांक.djvu/६३

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महादेवी ने सम्राट की ओर फिर कर पूछा “आप यज्ञवर्मा के संबंध में क्या कह रहे थे ?” सम्राट ने लंबी साँस भर कर कहा "देवि ! वह बहुत दिनों की बात है। तब तक साम्राज्य का बहुत कुछ गौरव बना हुआ था । तब तक मेरी भुजाओं में बल था। उस समय यज्ञवर्मा के नाम से सारा उत्तरापथ काँपता था । बहुत प्राचीन काल से मौखरी वंश की एक शाखा के अधिकार में चरणाद्रि का दुर्ग चला आता था। गुप्तसाम्राज्य की ओर से उस वंश के लोग उस दुर्ग की रक्षा पर नियुक्त थे । भट्टों और चारणों के मुँह से सुना है कि महाराजाधिराज समुद्रगुप्त ने उन लोगों को उस दुर्ग की रक्षा का भार दिया था। प्रथम कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त के समय में जब वर्वर हूण देश में टिड्डीदल की तरह टूट पड़े थे, साम्राज्य की उस घोर दुर्दशा के समय में मौखरिगढ़पतियों ने किस प्रकार दुर्ग रक्षा की थी उसे चारण लोग अब तक गली-गली गाते फिरते हैं । बहिन ! वाल्यकाल की बात का क्या तुम्हें कुछ भी स्मरण नहीं है ? वृद्ध यदु अभी जीता है। विवाह के पहले गंगा की बालू में बैठे हम दोनों भाई-बहिन बूढ़े यदुभट्ट का गान सुनते-सुनते अपने आप को भूल जाते थे, यह सब क्या तुम्हें भूल गया ?" बोलते-बोलते सम्राट उठ खड़े हुए और कहने लगे “मौखरि नर- वर्मा ने किस प्रकार दुर्ग रक्षा की थी, क्या भूल गया ? यदुभट्ट की बातें अब तक मेरे कानों में गूंज रही हैं; उसका वह कंठस्वर अब तक मुझे सुनाई दे रहा है ।- जिस समय अन्न और जल के बिना दुर्ग के भीतर की सेना व्याकुल हो उठी तब भी वीर नरवा ने साहस न छोड़ा। छोटे बच्चे ने प्यास के मारे तलफ-तलफ कर सामने ही प्राण त्याग किया पर नरवा विच- लित न हुए । वीरगणं ! उस मौखरि वीर ने क्या कहा था सुनो। इस चरणाद्रिगढ़ में मौखरिवंश महाराजाधिराज समुद्रगुप्त का प्रतिष्ठित किया