पृष्ठ:शशांक.djvu/६४

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- हुआ है, समुद्रगुप्त के वंशधर को छोड़ और कोई इसके भीतर पैर नहीं रख सकता | जब तक एक भी मौखरि के शरीर में प्राण रहेगा तब तक सम्राट को छोड़ और कोई अपनी सेना सहित दुर्ग में नहीं घुस सकता वीरो! मौखरि वीर ने जो किया था वह आर्यावर्त देश में कोई नई बात नहीं है। सैकड़ों दुर्गों में, सैकड़ों युद्धों में विदेशी सेनाओं ने वैसी सैकड़ों बातें देखी हैं, और देख कर चकित रह गए हैं ? मौखरी कुलांगनाओं के रक्त से दुर्ग का आँगन लाल हो गया है। सिर कटे बच्चों के कोमल धड़ नोच कर फेंके हुए फूलों के समान पत्थर की कड़ी धरती पर पड़े हैं । मौखरि वीर कहाँ है ? क्या अपने पुत्र, माता, और भगिनी के नाम पड़े-पड़े रो रहे हैं ? नहीं, वह देखो ! दुर्ग के प्राकार पर गरुड़ ध्वज ऊपर उठ रहा है। मौखरि वीर केसरिया बाना पहने उल्लास से गरज रहे हैं। कंठ में रक्त जपाकुसुम की माला धारण किए, रक्तचंदन का लेप किए वीर नरवा स्वयं गरुड़ध्वज हाथ में लिए सेना को बढ़ा रहे हैं। उनके गंभीर जयनाद को सुनकर हजारों हाथ नीचे खड़े हूण दहल रहे हैं। भीषण हुकार सुनकर पशु पक्षी पहाड़ छोड़कर भागे जा रहे हैं। इस जीवन की चिंता के साथ ही साथ उस वीर के चित्त से पुत्र-कलत्र की चिंता भी दूर हो गई है। जहाँ तक मनुष्य का वश चल सकता है नरवा ने किया, जो बात मनुष्य के वश के बाहर है उसके संबंध में कोई क्या कर सकता है ? धीरे-धीरे हूण सेना गढ़ के कोट पर चढ़ गई, कितु जब तक एक भी मौखरि जीता रहा हूण गढ़ के भीतर न घुस सके । जब नरवर्मा और उनके साथी दुर्ग के प्राकार पर महानिद्रा में मग्न हो गए तब हूणों ने दुर्ग पर अधिकार किया। देवि ! शार्दूलवर्मा को भूल गई क्या ? उस विशाल शरीरवाले योद्धा का कुछ ध्यान आपको है जो हाथ में परशु लिए पिताजी के ?