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पृष्ठ:शशांक.djvu/८२

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प्रासाद के नीचे घाट की एक टूटी सीढ़ी पर आकर बैठ गया। बालिका और दोनों बालक नीचे की सीढ़ी पर एक पंक्ति में बैठे । बुड्ढा कपड़े के भीतर से बंसी निकाल बजाने लगा। बैसाख की उस सनसनाती दुपहरी में बंसी का करुणस्वर भागीरथी का पाट लाँघता हुआ उस पार तक गूंज उठा, तपता हुआ संसार मानों क्षण भर के लिए शीतल हो गया। बालक बालिका चुपचाप बंसी की टेर सुन रहे थे। बंसी का सुर एक बारगी बंद हो गया, ऐसा जान पड़ा मानो संसार की फिर वही अवस्था हो गई । वृद्ध उठकर कहने लगा “कुमार ! तीन सौ वर्ष हुए गुप्तवंश में तुम्हारे ही समान एक और पिंगलकेश राजपुत्र हुआ था। अदृष्ट तुम्हारे ही समान उसके पीछे भी लगा था। तुम्हारे ही समान वह भी उदार, दयावान् और पराक्रमो था । तुम जिस प्रकार वंश के लुप्त गौरव के उद्धार के यत्न में अपना जीवन विसज्जित करोगे उसी प्रकार उसने भी किया था। उसका नाम था स्कंदगुप्त । अब इस समय उत्तरापथ में बहुत से लोग उसका नाम तक नहीं जानते । यह कोई अचंभे की बात नहीं है। पाटलिपुत्र के कृतघ्न नागरिक तक उसका नाम भूल गए हैं, पर किसी समय उसी स्कंदगुप्त ने पाटलिपुत्र के लिए अपना सब कुछ निछावर कर दिया था । "कुमार शशांक ! समुद्रगुप्त का नाम तुमने सुना है ? समुद्रगुप्त की समुद्र से लेकर समुद्र तक के दिग्विजय की कथा तुमने सुनी है ? कुमारगुप्त का वृत्तांत जानते हो ? स्कंदगुप्त कुमारगुप्त के ही पुत्र थे। तुम्हारे पिता के छोटे से राज्य में जिस प्रकार तुम्हारे भूरे बाल देखकर लोग पहचान जाते हैं कि तुम युवराज हो उसी प्रकार स्कंदगुप्त के पिता के साम्राज्य में उनके पिंगलकेश देखते ही समुद्र से लेकर समुद्र तक, हिमालय से कुमारी तक; सब उन्हें पहचान लेते थे । "तुम्हारे चारों ओर जैसा विपद् का जाल है उससे कहीं अधिक घना जाल उनके चारों ओर फैला था। उन्होंने घना