( ६७ ) कुमार ने हँसकर कहा "कहाँ तक जायँगे, गंगा द्वार पर द्वार रक्षक आप लोगों को सीधे लौटा देंगे, फिर इसी घाट पर आना होगा और नाव पर लौट जाना पड़ेगा, क्योंकि यहाँ से नगर की ओर जाने का नदी छोड़ और कोई मार्ग नहीं है।" यशो०--सुनो ! मैं मगध साम्राज्य की साधारण प्रजा में नहीं हूँ, सेना दल में मेरी पदवी महानायक* की है। राजद्वार में मुझे युवराज भट्टारकपादीय का मान प्राप्त है। अंतःपुर को छोड़ प्रासाद में और कहीं मेरे लिए रोक-टोक नहीं है। शशांक-आप-महानायक-युवराजभट्टारक ? यशो०-अचंभा क्यों मानते हो ? शशांक-मैंने आज तक कभी किसी महानायक या युवराज भट्टारक को इस रूप में प्रासाद में जाते नहीं देखा है। वे जिस समय आते हैं सैकड़ों पदातिक और सवार उनके आगे-पीछे रहते हैं । वे जिस मार्ग से होकर निकलते हैं डर के मारे लोग भाग जाते हैं। साम्राज्य के किसी युवराज भट्टारक को मैंने कभी पैदल चलते नहीं देखा है। यशो०-तुम कौन हो? शशांक-मैं सम्राट का ज्येष्ठ पुत्र हूँ। मेरा नाम है शशांक । इतना सुनते ही वृद्ध' गढ़पति की तलवार कोष से निकल पड़ी और उसकी नोक उसकी श्वेत उष्णीश पर जा लगी। उस समय सैनिक वर्ग में अभिवादन की यही रीति थी। अभिवादन के पीछे वृद्ध ने कहा "युवराज ! मैं इधर बहुत दिनों से पाटलिपुत्र नहीं आया इसी से आपको पहचान न सका। मेरे इस अपराध को आप ध्यान में न लायँगे जिस समय मैं राजसभा में आता-जाता था उस समय आप
- महानायक--उच्चपदस्थ सामंत, राजा या गढ़पति ।