पृष्ठ:शशांक.djvu/९३

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५० भिक्खु-यह तो समझता हूँ, पर जिनानंद का भेद नहीं खुलता। इसके पहले उसके पास और भी पत्र आ चुके हैं । फूलों की शय्या पर एक भिक्खु लेटा हुआ था। वह घबराकर उठ बैठा और बोला “अरे सावधान रहना ! दूर पर वज्राचार्य दिखाई पड़ा है"। उसकी बात सुनते ही सब उठकर खड़े हो गए। देखते देखते पेड़ की डाल कंधे पर रखे, मैले और फटे पुराने कपड़े पहने एक वृद्ध मंदिर के सामने आया । उसे देख भिक्खुओं ने साष्टांग प्रणाम किया । गंगा के किनारे पाठक एक बार उसे देख चुके हैं । वही, जिसने युवराज के संबंध में भविष्यद्वाणी की थी। वृद्ध ने पूछा “देशानद कहाँ है ?" भिक्षुगण -वन के भीतर गए हैं। वृद्ध-संघस्थविर कहाँ हैं ? भिक्षुगण-मंदिर के भीतर । वृद्ध देखते देखते वहाँ से चल दिया और दृष्टि के बाहर हो गया। जंगल के भीतर एक टूटे खंभे की आड़ में तरला और जिनानंद खड़े धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं । भैया जी ! अब क्या इसी प्रकार दिन काटोगे ? जिना o-क्या करूँ ? कुछ वश नहीं । इन्होंने मुझे बाँध तो नहीं रखा है, पर बाँध रखना इससे कहीं अच्छा था । सदा मेरे.पीछे लोग लगे रहते हैं, वे मुझे बराबर दृष्टि के सामने रखते हैं। इससे भाग निकलने का भी कोई उपाय नहीं है। तरला-तब क्या अब घर न लौटेंगे ? जिना०-लौटना यदि मेरी इच्छा पर होता तो मैं क्या अब तक यहाँ पड़ा रहता तरला- +सिद्ध भिक्षु = ये सदा हाथ में वज्र लिए रहते थे