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पृष्ठ:शशांक.djvu/९४

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जिना० (७४ ) तरला-तुम्हें संन्यासी बनाकर इन सबों ने क्या पाया है मेरी समझ में नहीं आता । तुम अपने बाप के इकलौते बेटे थे, न जाने फिस कलेजे से उन्होंने जीवन भर के लिए तुम्हें छोड़ दिया। -तरले ! उन्होंने क्या लाभ समझकर मुझे भिक्खु बनाया है, यह क्या तुम नहीं जानतीं ? पिता के मरने पर उनकी अतुल संपत्ति का उत्तराधिकारी मैं ही हूँ। यदि मैं घर में रहता तो यूथिका के साथ विवाह करके गृहस्थ होता। पर जिस दिन मैंने संघ में प्रवेश किया, मैं भिक्खु हुआ, उसी दिन से मेरा सब अधिकार जाता रहा, उसी दिन से मानो यह संसार मैंने छोड़ दिया। अब पिता के मरने पर संपत्ति पर मेरा कोई अधिकार न रहेगा, ये संन्यासी ही वह सब संपत्ति पाएँगे। इसी लिए ये सब मुझे यहाँ ले आए हैं और मेरे ऊपर इतनी कड़ी दृष्टि रखते हैं। तरला-भैया ! हो तो तुम वही वसुमित्र ही ! जिना To-अब वह नाम मुँह पर न लाओ, तरला ! समझ लो कि सेठ वसुमित्र मर गया, अब तो मेरा नाम जिनानंद है । तरला-भैया जी, ऐसी बात न कहो। यदि इस दासी के तन में प्राण रहेगा तो वसुमित्र यहाँ से निकलेंगे, फिर गृहस्थी में जायँगे और यूथिका से विवाह करके. जिना-कहाँ की बात तरला ! यह सब दुराशा मात्र है, दुराशा या दुःस्वप्न भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार का स्वप्न देखना भी मेरे लिए इस समय पाप है। तरला-भैया जी ! मक्खीचूस समझकर तुम्हारे पिता का नगर में सबेरे कोई नाम नहीं लेता । न जाने कितने गृहस्थों को तुम्हारे पिता ने राह का भिखारी कर दिया। पहले जब मैं तुम्हारे पिता की निठुराई की बातें सुनती तो मन ही मन कहती कि चारुमित्र मनुष्य नहीं हैं,