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पृष्ठ:शशांक.djvu/९५

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( ७५ ) पशु हैं । पर अब देखती हूँ कि चारुमित्र पशु नहीं, पत्थर हैं । पशु के हृदय में भी अपनी संतान का स्नेह होता है। जिना०-मेरे पिता एकबारगी हृदयहीन नहीं हैं। उन्हें धन की हाय हाय रहती है सही, पर उनके चित्र में कोमलता है। तरला ! उन्होंने बौद्धसंघ की उन्नति की अभिलाषा से मुझे उत्सर्ग कर दिया है। मेरे धन से बौद्ध संघ की उन्नति हो, यह उनका उद्देश्य है । राजा खुल्लमखुल्ला तो बौद्ध-विद्वेषी नहीं हैं, पर बौद्ध धर्मावलबी नहीं हैं। उनके मरने पर कहीं मैं अपना उत्तराधिकार जताकर बौद्धसंघ के साथ कोई झगड़ा न करूँ, इसी डर से पिता ने मुझसे संसार ही छुड़ा दिया, मुझे मृतक कर दिया । अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि अपना एक मात्र पुत्र तक, उन्होंने धर्म की उन्नति के लिए उत्सर्ग करके अक्षय पुण्य संचित किया है। -भैया जी मुझसे अब और न कहलाओ। तुम्हारा पिता समझकर मैं उनको कुछ नहीं कह सकती। कुछ दूर पर सूखे पचों पर किसीके पैर की आहट सुनाई पड़ी। जिनानंद डरकर कहने लगा “अब चलता हूँ। कोई आ रहा है।" तरला-कुछ डर नहीं, मैं जाकर देखती हूँ। एक पेड़ के पीछे खड़ी होकर तरला ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, फिर आकर बोली “कोई डर नहीं, वही मुँहजला बुड्ढा है, यहाँ तक पीछे लगा आया है। अब मैं यहाँ और न ठहरूँगी। तुम्हें यहाँ सड़ना नहीं होगा, मैं तुम्हें यहाँ से छुड़ा ले जाऊँगी ।" इतना कहकर तरला डग बढ़ाती हुई चली गई । जिनानंद लंबी साँस लेकर लौटा और उसने देखा कि कुछ दूर पर देशानंद तरला के पीछे-पीछे चला जा रहा है । तरला-