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शिवशम्भु के चिट्ठे


मक्कार कहने लगे। विचारिये तो यह कैसे अधःपतन की बात है? जिस स्वदेशको श्रीमान् ने आदर्श सत्यका देश और वहांके लोगोंको सत्यवादी कहा है, उसका आला नमूना क्या श्रीमान् ही हैं? यदि सचमुच विलायत वैसा ही देश हो, जैसा आप फरमाते हैं और भारत भी आपके कथनानुसार मिथ्यावादी और धूर्त देश हो, तो भी तो क्या कोई इस प्रकार कहता है? गिरेको ठोकर मारना क्या सज्जन और सत्यवादीका काम है? अपनी सत्यवादिता प्रकाश करनेके लिये दूसरेको मिथ्यावादी कहना ही क्या सत्यवादिताका सबूत है?

माइ लार्ड! जब आपने शासक होनेके विचारको भूलकर इस देशकी प्रजाके हृदय में चोट पहुंचाई है, तो दो-एक बातें पूछ लेनेमें शायद कुछ गुस्ताखी न होगी। सुनिये, विजित और विजेता में बड़ा अन्तर है। जो भारतवर्ष हजार सालसे विदेशीय विजेताओंके पावोंमें लोट रहा है, क्या उसकी प्रजाकी सत्यप्रियता विजेता इंग्लैण्डके लोगोंकी सत्यप्रियताका मुकाबिला कर सकती है? यह देश भी यदि विलायतकी भांति स्वाधीन होता और यहांके लोग ही यहांके राजा होते, तब यदि अपने देशके लोगोंको यहांके लोगों से अधिक सच्चा साबित कर सकते, तो आपकी अवश्य कुछ बहादुरी होती। स्मरण करिये उन दिनोंको कि जब अंगरेजोंके देशपर विदेशियोंका अधिकार था। उस समय आपके स्वदेशियों की नैतिक दशा कैसी थी, उसका विचार तो कीजिये। यह वह देश है कि हजार साल पराये पांवके नीचे रहकर भी एकदम सत्यतासे च्युत नहीं हुआ है। यदि आपका यूरोप या इंग्लैण्ड दस साल भी पराधीन हो जावे, तो आपको मालूम पड़े कि श्रीमान् के स्वदेशीय कैसे सत्यवादी और नीतिपरायण हैं। जो देश कर्म्मवादी है, वह क्या कभी असत्यवादी हो सकता है? आपके स्वदेशीय यहां बड़ी-बड़ी इमारतोंमें रहते हैं। जैसी रुचि हो, वैसे पदार्थ भोग सकते हैं। भारत आपके लिये भोग्यभूमि है। किन्तु इस देश के लाखों आदमी इसी देशमें पैदा होकर आवारा कुत्तोंकी भांति भटक-भटककर मरते हैं। उनको दो हाथ भूमि बैठनेको नहीं, पेट भरकर खानेको नहीं, मैले चिथड़े पहनकर उमरें बिता देते हैं और एक दिन कहीं पड़कर चुपचाप प्राण दे देते हैं। हालकी इस सर्दी में कितनों ही के प्राण जहां-तहां निकल गये। इस प्रकार