पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१०१

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शिवसिंहसरोज

लिन्दी वन दरके निरखि द दारयो छतियाँ बरति है। मेरे इन आंगन की नकल बनाई विधि नकल विलो के मोहैिं न कंल परति है ।।६।।

६७०. घनश्रानन्द कवि

गाइहीं देवी गनेस महेस दिनेसहि पूजत है। फल पाइहौ। पाइडों पावन न तीरथनीर सु नेकु जहीं हरि को चित लाइहौ ॥ लाइहौ आछे द्विजातिन को अरु गोधन दान करौ चरचाईहौ। चाइ अनेकन सो सजनी घनानंद मितही कंठ लग ईहौ ॥ १ ॥

१७१. घासीएम कवि

कीधौ उन बन घन घेरी न घुमंड अवें कीधौ कीच भूतल में प्रगति नहीं नई । कीधाँ दवी द।दुर रहे दुरइ व्य।लं.सों कीधौ पायी पिता पिया क टेरे ना रई ॥ घासीराम कीधौ बक वाचन के त्रत मान्यों की धर्ण वहि दे वीर पांवत नहीं ठ | कीचों काम स्थाजू के तर्क से निकसि गयो कीधों मेघ जू कीबीजूरी संती भई f १ विदू साँप वेमटा छि6दा गिरगिटों ताकि दि पेड़झे गुहेरो गोहबौना निर धरिये दुरकुंएछी दुॐही दिनाई हतार धिप सूमल अफीम निरखंसी भर भारिये ॥ घासीराम कंरइ कर किरकिचंया ता पुख कर सो घरंजर डरिये । कालंछ कुष्टंकी स मेत जेजहर होत चुगुल की जीभ पर एते विपं बंरिये ॥ २ ॥ सुख की नदी में किर्गी परत रॉभीर भर घेरा फों तख़त पि. लोन औरथ की । कैों वर्षों में रोमराजी रहै पर्नर्ग की कंधों खान खुली है जाहिर के गंध की ॥ घासीराम कैध सति सूखंभे की कैसी सी मांन ई खिरकी उरंऊंगढ़पर्थ की िऐरी मेरी वीर तेरी नाभि रंसीरी फैधों दो1 करता की के मान मन मथ की ॥ ३ ।। ____________________________________________ १ अगर ।२ साँप । ३ सह78 भट्ट । : दावांत ।