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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१११

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शिवसिंहसरोज

शिसिहंसराज

० ? सविता दृजपति मधि मनौ, घसी सुमाई त्रिवेनि॥4॥ ताहि विलोकति मुकुर लै, आरस सारस नैन। हरिसोभा दरसे दुरै,कहि न सकै मुख बैन॥५॥ बाल काल्ही को आजु लौ, नहिं सम्हरत तन देह। तुम्हरी बंक विलोक में, विपु है बीस विसेह॥६॥

(देशप्रकाश)

कवित। अमल कमल वागै चंदन प्रकवि धागे कमलाकी पाँइन की मृदु अरुनई के। छीनी भई कटि अति निकसि नितंब आये छपि गई छाती बड़े कुच तरुनई के ॥ आनन प्रकास सोभ- सूनो सो निहारियत सौतिन को जोम गयो भई करुनई के । गई लरिकई दधि घुमड़े गनोजप्रोज उमड़े परत अंग तंग तरुनई के॥१॥ आजु गई हुती हौ जमुनाजल लेन धरे सिर गागरि खाली। देख्यो जु मैं तट जाइ कै सो अव तोसो कहौ सुनू आली। गुंफित पल्लव फूलन की वनमाला हिये यो लसैश वनमाली पहार के मध्य विहार करै मिति के मनौ हंस सु वाली॥२॥ जाको देखि देखि करि बाढे़ चित चाउ हरि आओ नेकु पाँइ धरि देखौ बाल भाग सी। कोमल कमल अरू चरन विराजत हैं लचकै लचन लोनी लंक सोने-ताग सी॥ श्रीफल से सुंदर करेरे कुच चंद न हैं खंजन त्यौ नैन ऐन बेनी सीस नाग सी। कौन कौन बात की बड़ाई सुखदौन करों दीपति धंधेरे मौन चमकै

चिराग सी॥३॥
( कल्लोलतरंगिणी)

दोहा-छार सुदी दसमी हसु तिथेि, विजै‌ चंद सुभ बार। संवत ठारह सौ छालिस ग्रंथवतार॥१॥ .अवुज अंकें प्रफुल्लित जुग्म निसंक महातम को तट धारै । १ तमा 1 २ नागिन । ३ बेल के फल । ४ गोद में ।